script370 पर बहस तो हो | Article 370 are debate | Patrika News

370 पर बहस तो हो

Published: Jan 16, 2015 12:12:00 pm

Submitted by:

Super Admin

कुछ मुद्दे ऎसे होते हैं, जिन पर बात करना ही विवाद की शक्ल ले लेता है। जम्मू-कश्मीर का…

कुछ मुद्दे ऎसे होते हैं, जिन पर बात करना ही विवाद की शक्ल ले लेता है। जम्मू-कश्मीर को स्पेशल स्टेटस देने के लिए संविधान में अस्थायी प्रावधान के रूप में जोड़े गए अनु. 370 के साथ भी कुछ ऎसा ही है।

इसकी बात होते ही तलवारें खींच जाती हैं। मंगलवार को भी ऎसा ही हुआ। मोदी सरकार के पहले दिन ही राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने 370 को नुकसानदायक बता डाला। बस फिर क्या था। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तो आर या पार की ही धमकी दे डाली।

आखिर ऎसा क्या है 370 में जो इतना बवाल मच जाता है? क्या इसके अस्तित्व में आने के छह दशक बाद भी ये बहस नहीं होनी चाहिए कि देश और जम्मू-कश्मीर को इससे कितना लाभ हुआ या कितना नुकसान? जानिए क्या कह रहे हैं जानकार…

राष्ट्रपति चाहें तब खत्म कर दें

जब जवाहर लाल नेहरू और माउंट बेटन ने जम्मू-कश्मीर के राजा हरिसिंह को स्वायत्ता का आश्वासन दिया, तब उन्होंने किसी से सलाह नहीं की थी। न ही तत्कालीन केबिनेट से सलाह ली गई थी। राजा हरिसिंह को आश्वासन दिया गया कि अनुच्छेद-370 के जरिए उन्हें पूर्ण स्वायत्ता रहेगी। लेकिन संविधान सभा में इसे लेकर सहमति नहीं थी।

इसलिए पं. नेहरू ने सरदार पटेल से आग्रह कर और आत्मसम्मान का हवाला देकर 370 का प्रावधान करवा लिया। हालांकि पटेल ने कहा था कि अनुच्छेद-370 बहुत दिनों के लिए नहीं है। यह एक अस्थायी प्रावधान है। जम्मू कश्मीर का संविधान बनाने के लिए बनी समिति ज्यों ही अपना काम पूरा कर लेगी, इसे समाप्त कर दिया जाएगा।

भारतीय संविधान में भी 370 को एक अस्थायी प्रावधान के रूप में जोड़ा गया है। यह अस्थायी प्रावधान 64 साल चल गया है। आगे जरूरत नहीं है, बल्कि इतने साल के बाद यह तो स्थायी-सा ही हो गया। इसे रद्द करने के लिए संसद में वोट की जरूरत नहीं है।

सिर्फ हमारे राष्ट्रपति एक विज्ञप्ति निकाल दें कि यह रद्द की जा रही है तो स्वत: रद्द हो जाएगी। राष्ट्रपति को ऎसी विज्ञप्ति जारी करने के लिए कैबिनेट का प्रस्ताव मिलना चाहिए। उस समय जम्मू-कश्मीर के लिए बनी संविधान समिति को जम्मू कश्मीर के संविधान की धाराएं और विलय सम्बन्धी धाराएं तय करनी थीं।

उस समय कहा गया कि अगर बीच में कभी 370 को हटाना है तो इस समिति की अनुमति लेनी होगी। लेकिन उसका काम पूरा होने पर 1953 में इस संविधान समिति का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। ऎसे में अब सिर्फ यह शेष रह गया कि राष्ट्रपति स्वयं ही विज्ञप्ति जारी कर अनुच्छेद-370 को हटा दें।

अब सवाल है कि इसको रद्द करना है या नहीं? इसका जवाब यह है कि एक देश में दो विधान नहीं हो सकते, इस लिहाज से 370 की कोई जरूरत नहीं है। एक अस्थायी प्रावधान चिरस्थायी नहीं हो सकता। इसे रद्द करना स्वाभाविक-सी बात है। दरअसल, 370 को राजनीतिक हथियार बना लिया गया। कश्मीर में पृथकतावादी चेतना का मूल कारण यही है। हालांकि अलग-अलग बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों की जमात इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क देती रहती है। यह जाहिर है कि इससे जनता को कोई फायदा नहीं हुआ है।

कश्मीर में बाकी हिंदुस्तान के लोग न तो निवास बना सकते हैं, न कोई फैक्ट्री-धंधा लगा सकते हैं। इस कारण से वहां रोजगार सृजन भी नहीं हुआ है। इसलिए नुकसान तो हुआ है। अनु. 370 का गलत पक्ष यह भी है कि कश्मीर के लोग तो शेष हिंदुस्तान में बस सकते हंै लेकिन शेष हिंदुस्तानी वहां ऎसा नहीं कर सकते। जब अनु. 370 अस्तित्व में आया था तो नेहरू ने तर्क दिया था कि वहां हिंदू-मुस्लमानों का अनुपात न बदल जाए, इसलिए इसमें शेष हिंदुस्तानियों के न बसने का प्रावधान रखा गया है।

जब आतंककारियों ने पांच लाख कश्मीरी पंडितों को घाटी से खदेड़ा तो अनुच्छेद 370 इसे नहीं रोक पाया। नेहरू का तर्क फीका साबित हुआ। क्या एक तरफ से ही लोग नहीं आ सकते? पूर्वी पाकिस्तान से मुस्लिम आए वो तो भारत के नागरिक बन सकते हैं लेकिन बाकी हिंदुस्तान से लोग जम्मू-कश्मीर में नहीं बस सकते। यह हमारी अखंडता के खिलाफ है।

सुब्रमण्यन स्वामी वरिष्ठ भाजपा नेता

इस कड़ी को तोड़ा तो…
अनुच्छेद-370 हमेशा बहस का विषय रहा है। सवाल इससे हुए फायदे और नुकसान का नहीं है। यह एक राज्य को विशेष प्रावधान देने के लिए इजाद किया गया था। उस वक्त भारत -पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर में हालात इतने अच्छे नहीं थे कि इसका एकीकरण कर दिया जाता। जम्मू-कश्मीर को लेकर कई तरह के मुद्देे थे, जो अनसुलझे थे। इसलिए विशेष प्रावधान किए गए।

अभी हालात जस के तस
अनुच्छेद-370 की बात उठती है तो जेहन में सवाल उठता है कि छह दशक बाद आज हालात अनुकूल हो पाए हैं या नहीं? इसका जवाब है कि कश्मीर में हालात अभी भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। मौजूदा परिस्थितियों में भी एकीकरण मुमकिन नहीं है। अनुच्छेद 370 के फायदे और नुकसान का जायजा तरक्की के लिहाज से किया जाना चाहिए। लेकिन कश्मीर अपने मामलात में स्वतंत्र रहे या अलग हिस्सा हो या फिर भारत का ही सम्पूर्ण राज्य रहे, इन विकल्पों को लेकर फायदे-नुकसान की बात नहीं होनी चाहिए। हमें देखना चाहिए कि क्या एकीकरण के लिए स्थितियां अब भी उचित हैं कि नहीं?

शक्तियां खूब, प्रशासन कमजोर
इंटरलॉक्युटर्स के तीन सदस्यीय दल ने कश्मीर में राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में आए बदलाव, भारत में हुए बदलाव और दक्षिण-एशिया व वैश्विक स्तर पर आए बदलावों का आकलन किया। हमने जम्मू-कश्मीर में हर तबके से बात की। जहां तक पावर (अधिकार) का सवाल है तो उनके राजनीतिक तबके ने कहा कि हम ज्यादा पावरफुल हैं।

उन्होंने माना कि उनके पास पर्याप्त कानून हैं, जिनके जरिए वे अवाम के लिए बेहतर कर सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में ऎसा नहीं है कि सब कुछ अलग है। वहां भारत के सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार है। चुनाव आयोग समान रूप से कार्यरत है। शिक्षा, स्वास्थ्य, अन्य सामाजिक कल्याण की योजनाएं समान हैं। इस लिहाज से कोई अलग से फायदा या नुकसान नहीं हुआ है। हां, वहां विकास कम हुआ है। लेकिन इसके लिए अनुच्छेद-370 को जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है। विकास मेे पिछड़ने का कारण कुशासन है।

ये तो एक लिंक है
अनुच्छेद-370 तो एक लिंक (कड़ी) है भारत और जम्मू-कश्मीर के बीच। अगर इसे तोड़ देंगे तो कश्मीर के अलग होने का खतरा है। हालांकि यह एक अस्थायी प्रावधान था।

भारत ने भी स्थितियां समझते हुए धीरे-धीरे राष्ट्रपति के नियंत्रण (रेग्युलेशन) के तहत कानून और कई चीजें वहां के लोगों के लिए की हैं। इससे अनुच्छेद-370 का उल्लंघन भी हुआ है। उनकी राजनीतिक स्वायत्ता प्रभावित हुई है। अनुच्छेद 370 के लिए केंद्र सरकार की तरफ से जो प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए थी, वह नहीं की गई।

मुद्दे कुछ और भी
एकीकरण वही हो जो हितकारी हो। लेकिन इसमें व्यापक मुद्दों पर भी सहमति बनानी होगी। पानी, सियाचिन, अन्य सीमाई मुद्दे। कश्मीर सिर्फ एक राजनीतिक मुद्दा ही नहीं है। सुव्यवस्थित एकीकरण भी तभी होगा, जब
पाकिस्तान के साथ समस्याओं का समाधान निकलेगा।

संवैधानिक समीक्षा होनी चाहिए
द रअसल, हमें याद रखना होगा कि जब हम जम्मू और कश्मीर की बात करते हैं तो सम्पूर्ण कश्मीर की बात करते हैं। इसमें वह कश्मीर भी शामिल है, जो पाकिस्तान और चीन द्वारा काबिज है। इसलिए सवाल है कि जब एकीकरण होगा तो वह हिस्सा भी शामिल होगा या फिर हम भारत वाले हिस्से की ही बात कर रहे हैं? इसलिए जरूरत व्यापक बहस की है। सिर्फ मीडिया में बहस से कुछ नहीं होगा।

यह बहस संसद में होनी चाहिए। 370 को राजनीतिक हथियार बनाकर जम्मू-कश्मीर के लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ न किया जाए। अगर 370 में किसी भी तरह की तब्दीली लानी होगी तो वह संसद और जम्मू-कश्मीर की विधासनसभा को तय करना होगा।

यह प्रावधान काफी वार्ता के बाद हुआ था। इसलिए इसमें संशोधन भी वार्ताओं के जरिए ही सम्भव होगा। हमारी रिपोर्ट में भी हमने कहा था कि 370 की अगर समीक्षा करनी है तो वह संवैधानिक समीक्षा हो। इतिहास पर बहस करने की बजाय विशेषज्ञ लोग कानूनी दायरे में स्थिति को देखें। लेकिन हमारी अनुशंषाओं पर किसी भी राजनीतिक दल ने पहल नहीं की है।

समस्याओं का मूल कारण है…
कश्मीरी अलगाववाद और फूट की सबसे मजबूत जड़े भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में हैं, जो जम्मू कश्मीर को विशेष स्तर देता है। इस मुद्दे में केवल दूरगामी परिणामों वाले ऎतिहासिक, संवैधानिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचार ही शामिल नहीं है, बल्कि मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक विचार भी इसमें निहित हैं।

इसे क्यों जोड़ा गया
24 अक्टूबर 1947 को जब पाकिस्तानी सेना ने आजाद कश्मीर सेना के नाम से कश्मीर पर हमला बोला तो महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद मांगी। 26 अक्टूबर 1947 को उन्होंने विलय संधि की। इसके अधीन उन्होंने सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार केंद्रीय सरकार के सुपुर्द कर दिए।

इस “इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन”(जिसका स्वरूप अन्य रियासतों जैसा ही था) के लागू होने से राज्य की संविधान सभा में इस पर विचार-विमर्श होने तक भारतीय संविधान में कुछ अंतरिम नियम तो बनाने ही थे और अनु. 370 जोड़कर ऎसा किया गया। जहां एक ओर संसद को अन्य राज्यों के संदर्भ में कानून बनाने के लिए निर्बाध अधिकार हैं वहीं जम्मू कश्मीर में कानून बनाने को राज्य की सहमति जरूरी है।

प्रो. एम. एम. अंसारी
जम्मू-कश्मीर के लिए यूपीए सरकार में बने केंद्रीय इंटरलॉक्युटर
पैनल के सदस्य
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो