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कल्पना जगत में रहने के बाद भी कलाकार सत्य से परे नहीं

कला का संबंध मानसिक जगत से गहरे रूप में जुड़ा रहता है। कलाकार जिस विषय का प्रत्यक्षीकरण करता है, वह उसके मानसिक जगत का एक अपरिहार्य हिस्सा बन जाता है। इन सभी प्रक्रियाओं से गुजरता हुआ कलाकार एक ऐसे सौंदर्य को प्राप्त करता है, जिससे कला अभिव्यक्त होती है तथा वह संप्रेषणीयता को प्राप्त करती है। ध्यान रहे बिना मानसिक प्रयास के सृजन अपूर्ण ही नहीं, बल्कि असंभव सा होता है।

May 25, 2023 / 09:24 pm

Patrika Desk

कल्पना जगत में रहने के बाद भी कलाकार सत्य से परे नहीं


आर.बी. गौतम
कलाविद और
वरिष्ठ पत्रकार
मानव की संवेदनात्मक अनुभूति चित्रकला में मूल रूप से क्रियाशील रहती है। कलाकार वस्तु जगत से जब संपर्क साधता है, तो उसके आंतरिक जगत में उस वस्तु जगत की अनुभूति का सूक्ष्म बिंब प्रस्तुत होता है। यह बिंब कलाकार के जैविक अवयवों एवं मानसिक प्रज्ञान शक्तियों पर निर्भर करता है। कला मानसिक अनुभूति को ही अभिव्यक्त करती है। कलाकार को जब तक उसके अंतर्जगत में किसी प्रकार की अनुभूति का स्पर्श नहीं मिलता, तब तक वह कलाकर्म में प्रवृत्त नहीं हो पाता है।
कला सामान्य अनुभूति नहीं है। यह तो सामान्य जीवन से निकली मानसिक प्रक्रिया का वह स्वरूप है, जो सामान्य व्यक्ति को उपलब्ध नहीं है। सामान्य व्यक्ति के उद्वेग, प्रेम, क्रोध एवं असीम घृणा आदि जब अभिव्यक्त होते हैं, तब वह उन संवेगों के प्रति अपने संज्ञान को खो बैठता है। दूसरी तरफ कलाकार इन्हीं संवेगों-उद्वेगों में स्थितप्रज्ञ रहकर विश्लेषण करता है और अपनी त्रिगुणात्मक प्रकृति से विषय के अनुसार रंगों का चयन करता है। वस्तुत: जिस कलाकार ने मानसिक संवेगों एवं उद्वेगों की अनुभूति नहीं की, वह अगर ऐसे भावों का चित्रण करता है तो वह सत्यान्वेषण से परे होता है। अनुभूति में जिस मानसिक भूमिका की जरूरत होती है, वह कलाकार के लिए अनिवार्य होती है।
अब विचारणीय यह है कि कलाकार के अंतर्जगत में बाह्य जगत की अनुभूति मात्र हो जाना ही क्या उस कलाकर्म में प्रवृत्त कर देता है? इसका समाधान इसी कथन से हो जाता है कि केवल अनुभूति ही कला नहीं हो सकती। कला का मानसिक संज्ञान एवं मन का उस विषय से जब तक जुड़ाव नहीं हो पाता, कलाकार कला प्रक्रिया में अपने आप को तन्मय नहीं कर पाता। मन समस्त कलाकर्म का केन्द्र है। बिना मानसिक आयाम के कलाकर्म होना अपूर्ण एवं असंभव है। जब तक कलाकार अपनी मानसिक प्रक्रिया के द्वारा किसी विषय का साक्षात नहीं करता, तब तक वह अपूर्ण सत्य का उद्घाटन करता रहेगा। वह जिस प्रकार की अनुभूति बाह्य परिवेश से प्राप्त करता है, उसकी अभिव्यक्ति अपने कला ज्ञान के जरिए करता है। ऐसी कलाकृतियों में संप्रेषणीयता की समस्याएं उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यदि कलाकार की इस निरपेक्षता को बांधा जाता है, तो उसकी अभिव्यक्ति विकृत हो जाती है। एक पूर्ण कलाकृति कलाकार की भावनाओं और संवेदनाओं के आधार पर ही निर्मित होती है। इसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप कला की शुद्धता को दूषित करना कहा जा सकता है। यदि कोई कलाकार किसी प्रकार के हस्तक्षेप को स्वीकारता है, तो उसकी कलाकृति विकृत हो जाती हैै। कल्पना के विभिन्न अर्थ लगाए जाते हैं और मानसिक प्रक्रिया में यह एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका यह भी तात्पर्य नहीं कि कल्पना पूर्णत: यथार्थ और सत्य से बाहर है। कलाकार जब वस्तु जगत की सादृश्यता अपने मानसिक जगत से करता है, तो कल्पना का उपयोग स्वत: हो जाता है।
कुछ दर्शक कलाकार को कल्पनागामी कहकर उसकी कृतियों को यथार्थ से परे बतलाते हैं, वे वास्तव में कला को किसी भिन्न अर्थ में लेते हैं। कल्पना जगत में रहने के बाद भी कलाकार सत्य से परे नहीं रहता है। कलाकार के कृतित्व में उसकी मूल प्रवृत्तियां भी प्रभावी रहती हैं, जो कलाकार के जीवन को एक विशेष दिशा में प्रवाहित करती रहती हैं। कलाकार इन मूल प्रवृत्तियों में बदलाव लाकर प्रकारान्तर से चित्र सृजन करता है, परंतु फिर भी ये किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हो ही जाती हैं। कला का संबंध मानसिक जगत से गहरे रूप में जुड़ा रहता है। कलाकार जिस विषय का प्रत्यक्षीकरण करता है, वह उसके मानसिक जगत का एक अपरिहार्य हिस्सा बन जाता है। इन सभी प्रक्रियाओं से गुजरता हुआ कलाकार एक ऐसे सौंदर्य को प्राप्त करता है, जिससे कला अभिव्यक्त होती है तथा वह संप्रेषणीयता को प्राप्त करती है। ध्यान रहे बिना मानसिक प्रयास के सृजन अपूर्ण ही नहीं, बल्कि असंभव सा होता है।

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