scriptबयार में बदलाव | Assembly Election 2018: Wind of changes in the MP, CG and Rajasthan | Patrika News

बयार में बदलाव

locationजयपुरPublished: Nov 06, 2018 02:25:59 pm

Submitted by:

Gulab Kothari

गांवों के वोट अब किसी एक शक्तिमान के कहने से नहीं पड़ सकते। अत: इस बार वोट का प्रतिशत, सीटें एवं परिणाम कुछ भिन्न होंगे। भाजपा की चिन्ता यही है कि उसकी सीटें तमाम प्रयासों के बावजूद बढ़ नहीं पा रही हैं।

wind of changes

wind of changes

गुलाब कोठारी

परिवर्तन नित्य है, प्रकृति का नियम है। चारों युगों की यही कहानी है। सत्ता ही अहंकार है, प्रकृति-सत, रज, तम-ही परिवर्तन के कारक हैं। अविभाजित मध्य प्रदेश में कांग्रेस का शासन था। मुख्यमंत्री वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र से आते थे। सन् 2000 में जब विभाजन हुआ, परिवर्तन का नया दौर शुरू हुआ। अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने। इससे पहले वर्ष 1967 में गैर-कांग्रेस सरकार बनी। खरीद-बेच और चुनावी खर्च की मर्यादा भंग की शुरुआत हो गई। 1969 में फिर श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। संविद सरकार बनी। सत्ता का एक सिद्धान्त आगे से आगे बढ़ता गया। जब किसी शक्तिमान को हराकर सत्ता को प्राप्त किया जाता है, तब शक्तिमान की सारी बुराइयां पहले ग्रहण की जाती हैं। जैसे अंग्रेजों की सारी बुराइयां हम आज तक ढो रहे हैं। कांग्रेस की बुराइयों को भाजपा ढो रही है। उसी तर्ज पर परिवारवाद बढ़ता जा रहा है। लोकतंत्र की मर्यादाएं तार-तार होती जा रही हैं। लोकतंत्र के तीनों पायों एवं मीडिया ने अपना भारत ही अलग बना लिया है। शेष भारत इसका पोषण करता है। कोई बड़ा नेता आगे किसी को तैयार नहीं करता। अपने लोगों को लाने के लिए संघर्ष करता दिखाई पड़ रहा है।

अब फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे बड़े हिन्दी भाषी राज्यों में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। छत्तीसगढ़ में प्रथम चरण बारह नवम्बर को है। यहां पिछले पन्द्रह साल से भाजपा की सरकार है। मतदाताओं के लिए सुविधाओं और योजनाओं का अम्बार लगा है। मुख्यमंत्री रमनसिंह अपनी चौथी जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त दिखाई दे रहे हैं, पर जनता में एक धारणा यह भी है कि बिना धन दिए कोई काम नहीं होता। अधिकारी आततायी हो गए हैं। विशेषकर जनजाति तथा आदिवासी क्षेत्रों में। भाजपा का सम्पर्क नीचे तक अवश्य है, किन्तु जनता में परिवर्तन की कसक स्पष्ट है। किन्तु यह भी कटु सत्य है कि कांग्रेस के पास नेतृत्व की क्षमता वाला चेहरा नहीं है। भाजपा के विरुद्ध वातावरण को ही कांग्रेस अपनी जीत मानकर चल रही है। अवसर का लाभ उठाने के लिए अभी तक भी कोई तैयारी दिखाई नहीं देती। बस, आत्म संतुष्टि है कि भाजपा से टूटा वोट कांग्रेस की झोली में ही गिरेगा। किसी ‘कुमार स्वामी’ की जरूरत नहीं पड़ेगी।

इतिहास करवट बदलता दिखाई पड़ता है। भाजपा और कांग्रेस को औसतन बराबर (38-39%) वोट मिलते रहे हैं-छत्तीसगढ़ में। ४त्न बसपा, 7-8% निर्दलीय, 2-3% माकपा, सपा वगैरह को। इस बार समीकरण बदलते जान पड़ रहे हैं। सारा खेल नए मतदाता के हाथ में रहेगा, जो पार्टी को नहीं प्रत्याशी को महत्व देने वाला है। पूर्व चुनाव आयुक्त सुशील त्रिवेदी से चर्चा में सामने आया कि इस बार लगभग पांच लाख वोटर-18-19 वर्ष आयु के-पहली बार मतदान करेंगे। 20-29 आयु के अधिकांश मतदाता (कुल 54 लाख) भी पहली बार मतदान करेंगे। इनमें शेष युवा मतदाता (48 लाख) भी जोड़ लें तो लगभग एक करोड़ से अधिक मतदाता ऐसे होंगे, जो या तो बेरोजगार होंगे अथवा छोटा-मोटा काम नोटबंदी के कारण बंद कर चुके हैं। सड़क पर खड़े हैं। इनमें ही किसानों की नई पीढ़ी भी हैं जो खेती छोड़कर शहर में आकर मजदूरी करने को मजबूर है। इनमें तो चर्चा केवल बदलाव की ही है। वैसे भी छत्तीसगढ़ का किसान सरकार के विरुद्ध आन्दोलनरत है। पदयात्राएं कर चुका है। इनसे भाजपा को कितना समर्थन मिल पाएगा, समय ही तय करेगा।

दलों में लोकतंत्र कहीं नहीं बचा, सब जगह हाईकमान बन गए…

छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जनजाति के 32% मत हैं। ओबीसी के 51% तथा अनुसूचित जातियों के 12% मत हैं। शेष सभी मतदाता पांच प्रतिशत में हैं। हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब इसी में हैं। इनमें भी दलित एवं ईसाई तो कट्टर भाजपा विरोधी माने जाते हैं। इसी कारण अजीत जोगी, मायावती एवं कम्युनिस्ट पार्टियों का गठबंधन इनको आकर्षित करने में लगा है।

यहां यह उल्लेख उचित होगा कि अनुसूचित जातियों की 10 में से नौ सीटें भाजपा के पास हैं। इसका कारण जोगी का त्रिकोण माना जाता है। इस बार भी यही संभावना भाजपा के लिए श्रेष्ठ वरदान साबित हो सकती है। आम धारणा है कि इस बार जोगी ‘किंग मेकर’ बनना चाहते हैं। जैसा कि कर्नाटक में कुमार स्वामी बन गए।

बस्तर आदिवासी क्षेत्र में भाजपा के पास 12 में से चार सीटें हैं। इस बार जोगी भी यहां जोर लगा रहे हैं। भाजपा के सामने इस बार प्रवीण तोगडिय़ा की अंतरराष्ट्रीय हिन्दू परिषद भी खड़ी है। विश्व हिन्दू परिषद् से अलग हुए प्रवीण तोगडिय़ा ने बताया कि उनका दल समझौता नहीं करेगा और लगभग पचास हजार सदस्य भाजपा के विरोध में मतदान करेंगे। यह वही क्षेत्र है जहां आदिवासी मतदाता कई स्थानों पर बूथ तक नहीं पहुंच पाता। फिर भी उसके मत पेटी में पाए जाते रहे हैं। इस बार संभावना इसलिए भी कम है क्योंकि प्रत्येक बूथ पर कैमरे लगे होंगे। प्रधानमंत्री की इस क्षेत्र में दो तथा सरगुजा में एक सभा हो चुकी है, किन्तु प्रभावशून्य ही रही हैं। यहां चुनाव 12 नवम्बर को हैं।
इसके साथ ही राजनांदगांव, दुर्ग क्षेत्र की छह सीटों पर भी इन्हीं के साथ चुनाव होंगे। यह मुख्य रूप से साहू, यादव और कुरमी समाज (ओबीसी) का क्षेत्र है। सन् 2013 के विधानसभा चुनावों में यहां 3.07% वोट नोटा में पड़े थे। भाजपा की जीत का कुल अन्तर 0.7% लगभग 80 हजार था-पूरे प्रदेश में। सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में नोटा के मत 1.86% रह गए। जीत का अन्तर दस प्रतिशत हो गया था।

मत प्रतिशत इस बार और बढ़ेगा। सन् 1998 में मतदान प्रतिशत 60.37 से बढ़कर सन् 2013 में 77.82% हो गया था। प्रदेश में 13 जिले ऐसे भी हैं जहां महिलाएं अधिक संख्या में हैं। लगभग 33-34 विधानसभा क्षेत्रों में। मतदान का प्रतिशत पिछली बार भी अधिक था। इस बार भी बढऩे की संभावनाएं हैं। बेरोजगारी से यह क्षेत्र त्रस्त है। अच्छी सड़कों को देखकर पेट नहीं भर सकता।

छत्तीसगढ़ विधानसभा में वर्तमान स्थिति के अनुसार भाजपा-49, कांग्रेस-39 सीटों पर काबिज हैं। एक सीट पर बसपा तथा एक पर निर्दलीय विधायक है। इनमें से अनुसूचित जातियों की दस तथा अनुसूचित जनजातियों की २९ सीटें हैं। सन् 2008 में भाजपा करीब डेढ़ प्रतिशत मतों के अन्तर से सत्ता में आई थी। सन् 2013 में यह अन्तर आधा 0.7% रह गया था। भाजपा ने तीन सीटें तो 1500 मतों से कम अन्तर से हासिल की थीं। इसी प्रकार दस सीटों पर जीत का अन्तर 1500 से 5000 मतों का था।

आज जब हवा बदलाव की चल पड़ी है तो नए समीकरण बनेंगे। एक अन्य बड़ा मुद्दा सरकार के विरुद्ध अनुसूचित जनजाति बहुल बस्तर और सरगुजा क्षेत्र में बन गया है। सरकार ने वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में मनमानी के अनगिनत उदाहरण लोकहित के विरुद्ध पैदा किए। भू-राजस्व संहिता में बदलाव करके आदिवासी की मालिकाना भूमि को जबरन खरीदने के लिए लाए जाने वाले कानून से आदिवासी समाज का बड़ा हिस्सा भाजपा से नाराज है।

इसका प्रभाव मैदानी क्षेत्रों के अनुसूचित जाति वाले क्षेत्रों में भी दिखाई दे सकता है। इसका निराकरण अजीत जोगी-मायावती गठबंधन द्वारा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने से होना माना जाता है। इसी क्षेत्र में, इसी कारण भाजपा को 10 में से 9 सीटें मिली थीं। इस बार बराबर रहने की संभावना है। प्रधानमंत्री पूरी तरह चर्चा से बाहर हैं।

साधारण सीटों पर कांग्रेस फर्जी राशन-कार्ड के मुद्दे को घर-घर पहुंचा रही है। सन् 2011 की रिपोर्ट में 56 लाख गरीब परिवार थे, जबकि ७२ लाख राशन-कार्ड बनाए गए। पोल खुल जाने के बाद हालांकि अब फर्जी कार्डों को निरस्त करना शुरू हो गया है।

वर्तमान विधानसभा में भाजपा दस सीटों से आगे है। इस बार यदि छह सीटें निकल जाती हैं, तो भाजपा कष्ट में आ जाएगी। इस बार अजीत जोगी गठबंधन में लड़ रहे हैं। वे स्वयं, उनकी पत्नी एवं उनका पुत्र जनता कांग्रेस से और पुत्रवधू बसपा से चुनाव लड़ रहे हैं।

जोगी स्वयं अंदरखाने रमनसिंह के साथ भी माने जाते हैं। तब इस बिखराव का लाभ सीधा कांग्रेस को ही मिलेगा। यह सारा संघर्ष सतनामी समुदाय के लगभग 35000 मतों के लिए मचा हुआ है। वैसे इस बार किसानों के अलावा शिक्षक, संविदा कर्मचारी, आंगनबाड़ी कर्मचारी अपना रोष जाहिर कर चुके हैं। निचले स्तर पर जो छोटी-छोटी संस्थाएं प्रदेश भर में भाजपा के साथ कार्य कर रही थीं, वे भी अपना हाथ खींचकर बैठ चुकी हैं।

सन् 2000 में मध्यप्रदेश का जब विभाजन हुआ, वहां पर दिग्विजय सिंह की सरकार थी। छत्तीसगढ़ में भी अजीत जोगी कांग्रेस के मुख्यमंत्री बने। इससे अधिकांश कांग्रेसी आदिवासी नेता नाराज हो गए। कांग्रेस को हराने का अभियान कांग्रेस में ही चल पड़ा। विद्याचरण शुक्ल ने सन् 2003 के चुनावों में शरद पवार से समझौता करके अलग चुनाव लड़ा। कुल सात प्रतिशत मत और एक सीट मिली, किन्तु कांग्रेस सत्ता से चूक गई।

इसी प्रकार पिछले विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति की 10 में से 9 सीटों पर कांग्रेस की हार, तब कांग्रेस के एक बड़े नेता की सेंधमारी की वजह से ही मानी गई। यही संभावना इस बार भी भाजपा की सबसे बड़ी उपलब्धि बन सकती है। भले ही जनता भाजपा को बदलना चाहती है, किन्तु इसे भुनाने के लिए कांग्रेस पूरी तरह तैयार नहीं दिखाई पड़ती। जितनी मेहनत कांग्रेस को करनी चाहिए वो नहीं कर पा रही। बस, आत्म-मुग्ध है।

हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल मानते हैं कि पिछले 3-4 साल में कांग्रेस ने, उन्होंने स्वयं ने प्रदेश में काफी संघर्ष किया है, जिसके परिणाम निश्चित रूप से दिखाई देंगे। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद जगदलपुर संभाग, अम्बिकापुर संभाग, ऊर्जानगरी कोरबा, इस्पात नगरी भिलाई में जब भी चुनाव हुए, कांग्रेस को जीत हासिल हुई। नगरपालिका चुनावों में कांग्रेस भाजपा से दो सीटें आगे रही और नगर पंचायत में एकतरफा जीत हासिल की। सोसायटी चुनाव में 75 प्रतिशत नतीजे कांग्रेस के पक्ष
में गए।

कांग्रेस नेता मान रहे हैं कि ओबीसी के मतदाता एकतरफा कांग्रेस के साथ हैं। जीएसटी की वजह से छोटे व्यापारी भी भाजपा से छिटककर कांग्रेस के साथ आ गए हैं। उनका एक गणित यह भी है कि अनुसूचित जाति की सीटों पर निर्णायक वोट (लगभग 71 प्रतिशत) तो ओबीसी व सामान्य वर्ग के ही हैं। कांग्रेस का मानना है कि छत्तीसगढ़ में पार्टियों के पारंपरिक वोट गठबंधन के समय दूसरी पार्टी को हस्तांतरित नहीं होते। बघेल के नेतृत्व में धान खरीद, नसबंदी, जीएसटी, नोटबंदी आदि मुद्दों पर जो संघर्ष हुआ है, उसे वोटों में बदलते देखा जा रहा है।
पिछले चुनावों में नोटा में 3.07% वोट गए थे। नक्सलियों की धमकी काम कर गई कि वोट नहीं डालेंगे और डाले जाएं तो नोटा में डाल देना है। एक साल बाद लोकसभा चुनावों में नोटा कम होकर 1.86% रह गया। इस बार नक्सली प्रभाव क्षेत्र भी कम हो गया है। नोटा कम हो जाएगा। किन्तु भाजपा ने जमीन कानून बदलने का जो प्रयास किया उसने बड़ा विद्रोह खड़ा कर दिया। आदिवासी जातियों में तथा जनजातियों में। चूंकि पिछले चुनावों में जीत का अन्तर एक प्रतिशत से भी कम था, अत: भाजपा ने यहां पूरी ताकत झोंक रखी है।

यह सच है कि आज लोकतंत्र कहीं भी नहीं बचा। सब जगह हाईकमान बन गए। कांग्रेस की बुराई करते-करते उसके सारे दुर्गुण भी भाजपा ने ओढ़ लिए। सब मठाधीश बन गए। बजट दस गुणा बढ़ गया। परिवारवाद का प्रभाव यह भी हुआ कि नीचे की पंक्ति कहीं बनी ही नहीं। जो 20 साल से दरी उठा रहा है, वह ऊपर उठ ही नहीं रहा।

गांवों के वोट अब किसी एक शक्तिमान के कहने से नहीं पड़ सकते। अत: इस बार वोट का प्रतिशत, सीटें एवं परिणाम कुछ भिन्न होंगे। भाजपा की चिन्ता यही है कि उसकी सीटें तमाम प्रयासों के बावजूद बढ़ नहीं पा रही हैं।

gulabkothari.wordpress.com

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो