‘क्रांति’ आती भी कैसे? उसे तो हमारे भाग्यविधाताओं ने अपनी उपपत्नी बना कर सोने के पिंजरे में कैद कर लिया। ‘क्रांति’ के न आने का स्वघड़ित बहाना सुन कर हंस पड़े न आप। हमने किस चालाकी से ‘क्रांति’ न होने का कारण दूसरे के सिर मढ़ दिया। अब दाई से पेट क्या छिपाना।
हम जवानी में क्रांति-क्रांति करते रहे लेकिन जब भी क्रांति करने का वक्त आया क्रांति को अकेला छोड़ चुपचाप पतली गली से निकल लिए। भक्ति, प्रेम और विद्रोह कभी बाहर से नहीं उपजते। यह सब आदमी के भीतर होते हैं लेकिन आदमी बड़े ही शातिराना ढंग से इन्हें अपने हिवड़े के कारागार में कैद करके रखता है।
अब विश्व कविता दिवस के दिन कवि महोदय पूछते हैं कि बोलो कब प्रतिकार करोगे? कवि जी का आह्वान सुनते ही हमें हंसी छूट गई। हंसी उन पर नहीं वरन खुद पर आई। छोटे-छोटे समझौते करते-करते हम इतने समझौता-परस्त और सुविधाजीवी हो गए कि यथास्थिति को ही अपनी किस्मत समझ बैठे।
आज कोई हमसे परिवर्तन की बात करता है तो राम कसम दिल में कंपकंपी छूट जाती है। आप बुरा न माने तो एक बात कहें। यह हमारी-आपकी बात नहीं है सारा देश ही इस स्थिति में पहुंच गया है।
इंकलाब, क्रांति, प्रतिकार, विद्रोह सरीखे शब्द अब शब्दकोश या सिनेमा तक सीमित होकर रह गए। विद्रोह होता है पर सिर्फ पिक्चरों में। जैसे ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ की वैदेही करती है। प्रतिकार शब्द कविता में अच्छे लगते हैं। वास्तविक जिंदगी में हम इन शब्दों से परहेज करते हैं जैसे डायबिटीज का रोगी शक्कर से।
व्यंग्य राही की कलम से