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‘बतरस’ की दरिद्रता

Published: Feb 22, 2017 12:08:00 pm

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वकील मिल गए तो कोर्ट के किस्से और विश्वविद्यालय के मास्टर मिल गए तो बात परीक्षा की कॉपी जांचने और यूजीसी से मिलने वाले पारिश्रमिक के अलावा दूजी बात नहीं सूझती है।

एक जमाना था जब बातों से फुरसत नहीं मिलती थी, अब किसी के पास बात करने की फुरसत नहीं है। बेचारे बच्चे मम्मी-डैडी के संग बातें करने को तरसते हैं तो बूढ़े माता-पिता व्यस्त औलादों के दो बोल सुनने को तरस जाते हैं। 
किसी के पास वक्त ही नहीं है। हमें तो आश्चर्य तब होता है कि नए-नए ब्याहे युवक-युवतियां एक फ्लैट में रहते हुए भी एक-दूजे से व्हाट्सअप पर चैट करते नजर आते हैं। अरे वाह रे जमाने वाह। अपने समाज में चाहे सम्पन्नता आई, न आई हो, बतरस की दरिद्रता जरूर आई है। 
अगर दो रेलवाई वाले मिल जाएंगे तो बस बातें रेल की होंगी। वकील मिल गए तो कोर्ट के किस्से और विश्वविद्यालय के मास्टर मिल गए तो बात परीक्षा की कॉपी जांचने और यूजीसी से मिलने वाले पारिश्रमिक के अलावा दूजी बात नहीं सूझती है। 
कसम से हम कई बार कला, सिनेमा, कविता और खेल पर बातें करने को तरस जाते हैं। कोई बचपन का दोस्त टकरा जाता है तो हम लड़कपन की स्मृतियों में डूबना चाहते हैं। और सामने वाला मित्र अपनी सम्पन्नता और बेटे-बेटियों के ऊंचे पैकेज की बातें करने लगता है। 
उस वक्त हमारा जी करता है कि जूती उठाकर अपने कपाल पर मार कर कहें- अरे वाह रे जमाने। तेरे पास तो बातें ही खत्म हो गईं। हमें याद नहीं कि हमारे मुंह से निकला हो कि बोर हो रहे हैं। क्योंकि हमारे पास सोचने, बोलने और करने को इतनी सारी बातें हैं कि ससुरी खत्म ही नहीं होती। 
हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि जब कॉफी हाउस में रंगबिरंगी वेषभूषा पहने युवतियों को कहते सुनते हैं कि आज तो बोर हो गए। आप जरा अपनी मां के कुछ प्यार भरे शब्द सुनें, एकान्त प्रेम के संक्षिप्त संबोधन सुनें, नानी की कहानियों का श्रवण करें, साली-सहलज के परिहास, कभी प्रेमिका के उलाहने सुनें। 
और कभी हमारे जुमलेबाज नेताओं की बातें सुने तो रामकसम कभी बोर नहीं हो सकते। बतरस ही हमारा जीवन है, बातों में रस लेना तो सीखें।

व्यंग्य राही की कलम से 

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