उन दिनों हम ब्याहों में इसलिए नहीं जाते थे क्योंकि शगुन देने के लिए ग्यारह रुपए का लिफाफा और श्रीमतीजी के पास शादियों में पहनने लायक एक साड़ी तक नहीं थी। दरअसल भारतीय पत्नी ही नहीं पति के लिए भी बढिय़ा साड़ी एक सपना रही है।
आम तौर पर औसत भारतीय गृहिणी के पास पन्द्रह-बीस साडिय़ों से ज्यादा नहीं होती लेकिन हमें यह खबर पढ़ कर गश आ गया कि कर्नाटक के हुबली के सेल्स टैक्स कमिश्नर के घर एसीबी छापे में सात हजार साडिय़ां मिलीं। राम कसम सात हजार साडिय़ां तो अच्छे-खासे साड़ी एम्पोरियम में भी एक साथ नहीं दिखती। लेकिन हमारे देश के एक अदने से अधिकारी के यहां मिल गई।
अभी तक तो सुनते थे कि ‘अम्मा’ के घर में ही कई हजार साड़ी और तीन हजार चप्पल-सैन्डल मिले थे। लेकिन इस भ्रष्टाचारी ने तो ‘अम्मा’ को भी पीछे छोड़ दिया। दरअसल हम गफलत में हैं।
इस गफलत के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। ज्यादा से ज्यादा सोचें तब भी हमें यही लगेगा कि एक स्त्री के पास पहनने को तीन दर्जन साडिय़ां हैं तो वह सेठानी है। लेकिन तथाकथित रईसों, काला बाजारियों, बेईमान पूंजीपतियों, भ्रष्टाचारी अफसरों की मोटी लुगाइयों के साड़ी समाचार सुनते हैं तो अपने आप ही कहते हैं- रे कंगले! तेरे तो सोचने में भी कंगाली है। हम भी उन आम भारतीयों में से एक हैं जो भूखे अतिथि के लिए अपने हाथ की रोटी तक त्याग सकते हैं।
इन रिश्वती अफसरों ने देश का कबाड़ा करके अपनी घरवालियों के लिए हजारों साडिय़ां खरीद दी। लेकिन सुनते हैं, आखिर में दो गज सफेद कफन ही काफी होता है। व्यंग्य राही की कलम से