‘जानते हो कर्ण! आर्यावर्त के इस महासमर में मेरी भूमिका बस यही होगी कि मैं सबको उसके हिस्से का सत्य बता दूंगा। ताकि युद्ध के उपरांत समय के न्यायालय में कोई यह न कह सके कि हम अज्ञानता के कारण गलत पक्ष में चले गए थे। तुम्हारा सत्य तुम्हारे सामने है, अब उसको ध्यान में रख कर तुम अपना पक्ष चुनो।’ कृष्ण दृढ़ थे। असमंजस में पड़े कर्ण ने कुछ समय के मौन के बाद कहा, ‘दुर्योधन के प्रति आप मेरी निष्ठा और उसके कारण को भी जानते हैं केशव! मैं अपनी निष्ठा नहीं छोड़ सकता। क्या मित्र या उपकारी के प्रति निष्ठावान होना धर्म नहीं है?’ कृष्ण मुस्कुरा उठे। कहा, ‘निष्ठा धर्म का अंग होती है, पर निष्ठा ही धर्म नहीं है अंगराज! कोई भी निर्णय परिस्थितियों के आधार पर लेना चाहिए, अपनी प्रतिज्ञा या निष्ठा के आधार पर नहीं। जिस क्षण कोई व्यक्ति किसी अन्य के प्रति सदैव निष्ठावान रहने का निर्णय लेता है, या कोई प्रतिज्ञा करता है, तब उसे पता नहीं होता कि अगले क्षण की परिस्थिति कैसी होगी। जब आप पूर्व में लिए गए निर्णय के आधार पर वर्तमान के साथ व्यवहार करते हैं तो आप समय का अपमान करते हैं। और मनुष्य की सामथ्र्य नहीं कि वह समय का अपमान करके विजयी हो सके।
आपको आज का निर्णय आज की परिस्थिति के आधार पर लेना चाहिए कर्ण, कल के आधार पर नहीं…’पर मैं अपना इतिहास कैसे भूल जाऊं प्रभु! मेरा वर्तमान तो मेरे अतीत पर ही टिका हुआ है न।’ कर्ण विचलित हो कर भूमि पर ही बैठ गए थे। कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘व्यक्ति में अपने इतिहास के प्रति मोह नहीं होना चाहिए कर्ण! इतिहास केवल और केवल इसीलिए होता है कि मनुष्य पूर्व में हुई गलतियों से सीख ले सके, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं… अब तुम अकेले निर्णय लो।’ कृष्ण चले गए, कर्ण दुविधा के सागर में डूबे बैठे रहे। वह जानते थे कि उनके अतीत के अपराध उन्हें सही पक्ष चुनने नहीं देंगे।
(लेखक पौराणिक पात्रों और कथानकों पर लेखन करते हैं)