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बेवफा बारिश

Published: Jun 08, 2015 11:56:00 pm

मानसून का भी अजीब हाल है। बरसेगा तो चारों तरफ जल थल
एक कर देगा नहीं तो एक-एक बूंद के लिए तरसा देगा

Monsoon

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मानसून इस बार फिर बेवफाई दिखा रहा है। एक जून को आना था पांच तक नहीं आया। बेवफा इश्क और हुस्न भी यही करते हैं। बेचारा प्रेमी घंटों तक मेट्रो स्टेशन के बाहर खड़ा इंतजार करता रहता है लेकिन प्रेमिका नहीं आती। बादल भी यही करते हैं। बेचारे किसान आंख फाड़े आसमान ताकते रहते हैं लेकिन वह आने का नाम नहीं लेते। आते भी हैं तो एक झलक दिखला कर गायब हो जाते हैं। आजादी के छह दशक बाद तक अभी हम मानसून की मेहरबानी पर ही निर्भर हैं। वह ठीकठाक रहा तो पौ बारह, नहीं तो घुटनों में सिर दबा कर रोते रहो पूरे साल।

उछलती अर्थव्यवस्था अचानक केंचुए की तरह रेंगने लगती हैं। इधर मानसून की चिंता में सारा देश दुबला हो रहा है और अपने खजाना मंत्री कह रहे हैं कि लोग खाम खां घबरा रहे हैं। ठीक है वकील साब। आपकी बात हमें अच्छी तरह समझ में आ गई। आप वित्तमंत्री न भी रहे तो वकालत कर लेंगे। एक केस की बीस-पच्चीस लाख वसूल लेंगे। नहीं तो क्रिकेट बोर्ड चलाएंगे पर हम तो अपनों से यही सवाल पूछते नजर आएंगे- अब तेरा क्या बनेगा भाइला? “मैगी” या “कीमा”। चाहे वित्तमंत्री कतई न घबरा रहे हैं पर हमारी तो अभी से जान सूखी जा रही है।

अगर ढंग की बौछारें न गिरी तो बाजार बाबे के भाव चढ़ जाएगा। दस रूपए का माल पंद्रह में मिलेगा। हमारा घरेलू बजट तो गड़बड़ा ही जाएगा। लेकिन मानसून भी क्या करें बेचारा। हम कौन सी कसर छोड़ रहे हैं। आजादी के वक्त देश में कितने हरे-भरे जंगल थे। धीरे-धीरे साफ हो रहे हैं। राजमार्ग बनाने में ही हमने करोड़ों पेड़ काट दिए। यह पेड़ राजा-महाराजाओं के जमाने के थे। कुछ की उम्र तो डेढ़ दो सौ साल थी।

छायादार घने पेड़ काट दिए और उनकी जगह फैंसी पौधे रोप दिए। कहां सौ बरस का पीपल और नीम और कहां पचास साठ दिन का हजारा। हरियाली और मानसून का पुराना याराना रहा है। हमने जब दोस्ती ही खत्म कर दी तो मानसून को क्या पड़ी कि वो हम पर रहम करे। मानसून का भी अजब हाल है।

बरसेगा तो इतना कि चारों तरफ जल थल एक कर देगा और जनता पानी-पानी हो जाएगी और नहीं बरसेगा तो एक-एक बूंद के लिए तरसा देगा। आने वाले समय में पानी के लिए कितनी मारा मारी मचने वाली है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। अपनी जिन्दगी तो जैसे-तैसे गुजर गई पर पोते का क्या होगा, यह सोचते ही पसीना छूटनेे लगता है। हमारी सरकारें तो बातें बनाने में बड़ी उस्ताद हैं।


अब तो इजराइल से भी गहरी दोस्ती हो गई। क्यों नहीं पानी सहजने के गुर उससे सीख लेते? इजराइल की क्या बात करें हमारे पूर्वज भी पानी को धन की तरह सहेजते थे। रेगिस्तान की महिलाओं से ही पानी बचाने के गुर सीख लो। लेकिन हम तो अपने “कमोड” में एक बार निबटने में ही आठ दस लीटर पानी फेंक आते हैं। अकेले मानसून बेचारा करे तो क्या करे और कब तक करे?

 राही
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