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अमीरों के लिए बिछती “सेज”

Published: Apr 09, 2015 04:54:00 am

विशेष आर्थिक जोन पर नीति को लेकर केंद्र से
लेकर राज्य सरकार कठघरे में रही हैं।

विशेष आर्थिक जोन पर नीति को लेकर केंद्र से लेकर राज्य सरकार कठघरे में रही हैं। रोजगार, उद्योग के नाम पर कुछेक कंपनियों के लिए खेती या ग्रामीण इलाकों की जमीन को अधिगृहीत करने के दावों की हकीकत सामने आती रही है।

जानकार बताते हैं कि खुद केंद्र सरकार का विशेष आर्थिक जोन कानून विफल रहा है, वही अब राज्यों से निवेश और रोजगार के लिए उनका अलग कानून बनवा रही है। राजस्थान सरकार ने यही तर्क देते हुए हाल ही में अपना अलग कानून पास किया है। जानिए क्या है इस पर जानकारों की राय, पढिए इस स्पॉटलाइट में….

इसकी जरूरत नहीं

अरूणा राय, समाजसेवी

देश भर में विशेष आर्थिक जोन (सेज) विफल रहे हैं। क्षेत्रीय जरूरतों के लिए जमीनें काम में नहीं ली गईं। ज्यादातर जगह भूमि को रियल एस्टेट के काम में लिया गया। यह सीएजी (कैग) की रिपोर्ट में बताया गया। सेज के लिए इस वक्त नया कानून पास करना समझ से परे है बल्कि इस वक्त इसे खत्म करने की जरूरत थी। जैसा कि गोवा में हुआ है। सेज में सिर्फ भूमि अधिग्रहण ही नहीं होता है, बल्कि उससे आगे चीजें होती हैं। सेज में स्वत: रूपांतरण भी कहा गया है।


राजस्थान में महिन्द्रा सेज में भी देखने को मिला था कि जमीन किसी एक मकसद के लिए ली गई और उसका इस्तेमाल किसी दूसरे मकसद के लिए हुआ और किसी अन्य उद्देश्य के लिए उसे बेच दिया गया। वैसे ही देश में इस वक्त किसान चिंतित और नाराज हैं।

ऎसी परिस्थितियों में भूमि नीति पर बिना व्यापक चर्चा किए हुए आगे बढ़ना सही नहीं है, क्योंकि भूमि अधिग्रहण इस कानून का फिर हिस्सा होगा। भूमि अधिग्रहण और पुर्नवास पर केंद्र स्तर पर बहुत बड़ी बहस चल रही है, अभी उसका ही समाधान नहीं निकला है। ऎसे में किसी राज्य में सेज की दिशा में कॉरपोरेट और उद्योग क्षेत्र के लिए प्रगतिशील प्रावधान और किसानों के लिए प्रतिगामी काम करना सवाल खड़े करता है।

मूल्यांकन से भाग रही सरकार

राजस्थान के पिछले सेज कानून के अनुभव का पूरा मूल्यांकन होना चाहिए। सभी नए कानून के बारे में चर्चा होनी चाहिए। क्या गारंटी है कि यह नया कानून सफल हो जाएगा। अगर इसमें भी विफलता हाथ लगी तब क्या होगा? सरकार द्वारा नीति निर्माण में सम्बंधित पक्षों को शामिल क्यों नहीं गया, पुराने कानून का मूल्यांकन क्यों नहीं किया गया? सरकार इससे क्यों भाग रही है? अभी जो कानून पास किया है, इसके क्या सुरक्षा उपाय हैं।

सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि लोगों की जमीन रोजगार और विनिर्माण के नाम पर ली जाती है। पहले कितनी विनिर्माण इकाइयां लगीं, यह बताया जाए। साथ ही जितना भूमि अधिग्रहण हुआ है, उसके बारे में सरकार द्वारा जनता को जानकारी दी जानी चाहिए।


इतने सारे भूमि बैंक हैं, उनका उपयोग नहीं हो रहा है। पहले जिन्हें जमीन आवंटित की गई थी और अगर उनका लक्षित उद्देश्य के लिए उपयोग नहीं हुआ हो तो उनसे वह वापस ली जाए।


सरकार को सेज के लिए विशेष परिस्थितियों में ही विशेष प्रावधान करने चाहिए। पहला, जब सरकार को जमीन बिलकुल भी नहीं मिल रही है और जमीन लेने की जरूरत दिख रही है। सामान्य प्रक्रिया के तहत भी किसानों से जमीन ली जा सकती है।

इसका औचित्य ही क्या है

राजस्थान जैसे राज्य में जहां बड़ी तादाद में बंजर भूमि है, उसका इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता। नए कानून में भी यह प्रावधान कि कर छूट देंगे, पानी-बिजली उपलब्ध कराएंगे तो ये सारे प्रावधान तो महिन्द्रा सेज में भी किए गए थे। बाकी जगहों पर भी ऎसा किया गया। फिर भी विनिर्माण कार्य नहीं हुआ। दरअसल, इस सेज एक्ट का औचित्य किसी भी स्तर पर नहीं लग रहा है।

राज्य सरकार का यह तर्क कि केंद्र सरकार के निर्देश पर सेज कानून पास किया गया है तो केंद्र सरकार तो खुद ही अपने सेज कानून में विफल रही है। सेज का जो अपेक्षित लाभ था, वो हुआ ही नहीं। सरकार के पास कर भी कम आया। अगर सरकार कॉरपोरेट क्षेत्र को ही फायदा पहुंचाना चाहती है तो बात अलग है।


सेज के अंदर असंवैधानिक स्थिति भी पैदा की गई है। सेज में अलग नियम-कानून होते हैं और उसके बाहर कुछ और। दूसरी विनिर्माण इकाइयों से ज्यादा सेज वाली इकाइयों को लाभ पहुंचाया जाता है। सेज से निवेेश के माहौल बनाने का तर्क भी सही नहीं है। जमीन अधिगृहीत करने से लोगों की सुरक्षा खत्म हो जाती है और कम्पनियां सुरक्षित हो जाती हैं। सेज कम्पनियों के लिए न सिर्फ विशेष आर्थिüक जोन है बल्कि यह उनके लिए लीगल जोन भी बनाता है।

नया सेज कानून

राजस्थान विधानसभा ने पारित किया विशेष्ा आर्थिक जोन (सेज) विधेयक। सरकार मुहैया करवाएगी जमीन, सभी तरह की सुविधाएं भी।

आयुक्त सर्वेसर्वा

सेज सम्बन्धी सभी अधिकार विकास आयुक्त में निहित कर दिए गए हैं। श्रम अधिकार भी उसी के पास।

मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित समिति करेगी अनुमोदन। भूमि की अधिकतम सीमा के नियम से छूट। विकासकर्ता को सरकार अपनी जमीन दे सकेगी। भूमि अधिगृहीत करके भी दे सकेगी। विकासकर्ता स्वयं भी भूमि खरीद सकेगा।

किसान का फायदा नहीं

विजय शंकर व्यास, अर्थशास्त्री

स बसे पहली बात तो यह है कि विशेष आर्थिक जोन (सेज) की परिकल्पना ही गलत है। अभी तक का हिंदुस्तान का इतिहास बताता है कि यह परिकल्पना बहुत अधिक सफल नहीं हो सकी है। राजस्थान विशेष आर्थिक जोन विधेयक को सत्ता पक्ष ने विधानसभा में पारित तो करा लिया है लेकिन जिस लाभ की परिकल्पना करते हुए इसे पारित कराया गया है, उसमें संदेह बना हुआ है।

लंबित हैं मुआवजे

सरकार जब भी उद्योगों को स्थान देने के लिए जमीनों का अधिग्रहण करती है तो वह इस बात कभी ध्यान नहीं रखती कि किस तरह की जमीन अधिगृहीत की जा रही है? सरकार का उद्देश्य उद्योगों को लाभान्वित करने का होता है।

खासतौर पर उन्हें शहर के पास जमीन उपलब्ध कराई जाती है। इसके लिए शहर के नजदीकी गांवों के किसानों की जमीनों का अधिग्रहण होता है लेकिन इसके लिए कभी भी अनउपजाऊ या उपजाऊ जमीन को चिन्हित नहीं किया जाता।

सरकार इसके लिए उपजाऊ जमीन को भी अघिगृहीत करके उद्योगों को सौंपती रही है। राजस्थान सरकार के विधेयक में इस संदर्भ में कोई उल्लेख नहीं है कि वह अनउपजाऊ जमीन ही अधिगृहीत करेगी। इसके अलावा दूसरी बड़ी परेशानी यह है कि सरकार किसानों की जमीने ले तो लेती है लेकिन उन्हें ना तो समय पर मुआवजा मिलता है और ना ही यह उनकी अन्य आजीविका के लिए पर्याप्त होता है।

इतिहास तो यही बताता है कि पूर्व में उद्योगों के लिए अधिगृहीत की गई हजारों किसानों की जमीनों के मुआवजे लंबित पड़े हैं। नए विधेयक से किसानों को कोई लाभ नहीं होने वाला है।

औद्योगिक उपयोग में देरी

सरकार चाहती है कि उद्योगों को प्रोत्साहित करे। उनकी स्थापना से आमजन को बड़ी संख्या में रोजगार मिलने की संभावना रहती है। इसके लिए सरकार उद्योगों को एक ही स्थान पर मूलभूत सुविधाएं बिजली, पानी, सड़कें आदि की सुविधा उपलब्ध कराती है।

विशेष आर्थिक जोन में उद्योगों की स्थापना के बाद यदि यहां तैयार उत्पाद निर्यात होता है तो सरकार उस पर कई प्रकार की करों में रियायतें भी देती है। लेकिन असल मुद्दा तो जमीन का होता है और इसके लिए सरकार किसानों की जमीन को अधिगृहीत करके इसे उद्योगों को एक ही स्थान पर उपलब्ध कराया जाता है।

सरकारी संस्थान जैसे रेलवे और बंदरगाह भी अपने लिए किसानों की जमीनें खरीदकर लैंड बैंक तैयार करते रहे हैं और बेहतर कीमत मिलने पर उसे बेचते भी रहे हैं। ऎसे में निजी कंपनियों से कोई कैसे उम्मीद रख सकता है कि किसानों की जमीनों को सरकार के माध्यम से खरीदकर वह नहीं बेचेगा।

अनेक उदाहरण हैं जिसमें उद्योग या फैक्ट्री लगाने के नाम पर ली गई जमीन का इस्तेमाल अन्य काम के लिए हो रहा है। कई बार तो निर्धारित समय में उद्योग स्थापित ही नहीं हो पाते हैं।

कैसे मिले उचित लाभ

उद्योग के लिए जरूरी समयसीमा में आवश्यक निर्माण हो जाए, इसके लिए इस विधेयक में कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं। इसका उपयोग किस प्रकार से होता है, यह तो सभी को पता है।

वास्तव में होना तो यह चाहिए कि उद्योग निश्चित समय-सीमा में लग जाए, इसका प्रावधान हो और इस प्रावधान की सख्ती के साथ अनुपालना भी हो। ऎसा नहीं हो पाने से ना तो सरकार को पर्याप्त लाभ मिल सकेगा और ना ही किसानों को ही, इसका उचित लाभ मिल सकेगा।

गरीब उजाड़ो जोन

रामपाल जाट, किसान नेता

से ज के जरिए हिंदुस्तान को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। विशेष आर्थिक जोन ग्रामीण अर्थव्यवस्था का गला घोंट कर तैयार किए जा रहे हैं। तरक्की के नाम पर सरकारें गांवों को निगल जाना चाहती हैं। सेज में अवसरों की समानता की अवधारणा समाप्त हो जाती हैं। ये अवधारणा ही गलत है। सरकारें सिर्फ पैसे के पीछे भाग रही हैं, जबकि होना इसके उलट चाहिए।

शासक से अपेक्षा की जाती है कि वह भगवान विष्णु जैसा व्यवहार करे। यानी जो विषधरों को अपनी शैय्या बना लें और लक्ष्मी उसके पांव दबाए। सेज का मतलब पैसे वालों को सिर पर बैठाना है। यहां लक्ष्मी शासक के पांव नहीं दबाती बल्कि शासक दबा रहे हैं। पैसा लगाने वाले तो खुद ही निवेश करेंगे। सेज को निवेश को आकर्षित करने वाला गतिविधि माना जाता है पर ऎसी गतिविधियां कभी खुशहाली नहीं लातीं।


खुशहाली आम आदमी के हितों में काम करने से ही आती है।
निस्संदेह सरकार को धन (लक्ष्मी) चाहिए पर वह भगवान विष्णु के समक्ष नमस्तुभ्यम होनी चाहिए। सेज जैसे कानून पैसे वालों को पालते-पोसते हैं। इसमें गांवों के मजदूर, किसान को स्थान नहीं दिया जाता।


सरकार को चाहिए कि वह ग्रामीण अर्थव्यस्था को मजबूत करे। गांवों में स्थानीय मोची, तेली, कुम्हार, खाती, पिंजारा, बुनकर आदि लोगों को शक्ति देनी चाहिए थी। पर मौजूदा अर्थव्यवस्था में मोची को खत्म करके जूते बनाने वाले कॉरपोरेट और लुहार को खत्म करके लोहे के कॉरपोरेट को पनपाया जा रहा है। ये पनपेगे तो गरीब का क्षरण निश्चित है।

गांव-शहर दोनों दुखी होंगे

उद्योग होने चाहिए पर उनका झुकाव गांवों में हो। गांव आधारित संरचना, जो गांधी ने कही थी, उससे ही देश ठीक होगा। इस पर सरकार ने विचार किया होता तो सेज ही खत्म हो गया होता। किसानों को उजाड़कर धनी को बसाना कहां का न्याय है। जिन नौकरियों की बात सरकार करती है, वह आर्थिक सहायता के रूप में ग्रामीणों को वैसे ही दी जा
सकती है। सेज की खामियां हमेशा रहेंगी। अभी सेज में जिन कम्पनियों को जमीन दी गई थी, वे ही विकसित नहीं हो पाई हैं। उनसे जमीन वापस लेनी चाहिए थी। अर्थव्यवस्था की मौजूदा अवधारणा से बचना होगा। वरना गांव और शहर दोनोें ही दुखी रहेंगे।
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