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एक महाराज जो अपने साथ गंग नहर को लेकर आए, आज भी सुनाई जाती हैं कहानियां

locationनई दिल्लीPublished: Oct 16, 2020 02:58:22 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

महाराजा गंगा सिंह 1888 से 1943 तक बीकानेर रियासत के महाराजा थे। उन्हें आधुनिक सुधारवादी भविष्यद्रष्टा के रूप में याद किया जाता है। पहले महायुद्ध के दौरान ‘ब्रिटिश इम्पीरियल वार केबिनेट’ के वह अकेले गैर-अंग्रेज सदस्य थे।

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महाराजा गंगा सिंह का जन्म 13 अक्टूबर, 1880 को बीकानेर में हुआ था। वह बीकानेर के महाराजा लाल सिंह की तीसरी संतान थे और डूंगर सिंह के छोटे भाई थे। बड़े भाई के देहांत के बाद गंगा सिंह 1887 में 13 दिसंबर को बीकानेर-नरेश बने। उनका पहला विवाह प्रतापगढ़ राज्य की बेटी वल्लभ कुंवर से 1897 में, और दूसरा विवाह बीकमकोर की राजकन्या भटियानीजी से हुआ, जिनसे इनके दो पुत्रियां और चार पुत्र हुए। गंगा सिंह की प्रारंभिक शिक्षा पहले घर ही में हुई और बाद में अजमेर के मेयो कॉलेज में 1889 से 1894 के बीच। ठाकुर लालसिंह के मार्गदर्शन में 1894 से 1898 के बीच उन्हें प्रशासनिक प्रशिक्षण मिला। 1898 में गंगा सिंह को फौजी-प्रशिक्षण के लिए देवली रेजिमेंट भेजा गया जो उस समय लेफ्टिनेंट कर्नल बैल के अधीन देश की सर्वोत्तम मिलिट्री प्रशिक्षण रेजिमेंट मानी जाती थी।
न्यायिक सेवा में बीकानेर को दिलाई विशिष्ट पहचान
पहले विश्वयुद्ध में गंगा सिंह ने ‘बीकानेर कैमल कॉर्प्स’ के प्रधान के रूप में फिलिस्तीन, मिस्र और फ्रांस के युद्धों में सक्रिय भूमिका निभाई। 1902 में वे प्रिंस ऑफ वेल्स और 1910 में किंग जॉर्ज पंचम के ए.डी.सी. भी रहे। युद्ध के बाद रियासत लौट कर उन्होंने प्रशासनिक सुधारों और विकास के लिए कई असाधारण कार्य किए, जैसे 1913 में निर्वाचित जन-प्रतिनिधि सभा का गठन किया और 1922 में उच्च-न्यायालय स्थापित किया। बाल-विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट कड़ाई से लागू किया। 1924 में ‘लीग ऑफ नेशंस’ के पांचवें अधिवेशन में प्रतिनिधित्व किया। वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संरक्षक, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी लंदन की इंडियन सोसाइटी, मेयो कॉलेज, अजमेर की जनरल काउंसिल जैसी संस्थाओं के सदस्य और इंडियन रेड क्रॉस सोसाइटी के पहले सदस्य थे।
पूरा किया सतलुज का पानी लाने का संकल्प
उन्होंने 1899-1900 के बीच पड़े कुख्यात ‘छप्पनिया काल’ की हृदय-विदारक विभीषिका देखी थी और अपनी रियासत के लिए पानी का इंतजाम एक स्थायी समाधान के रूप में करने का संकल्प लिया था। पंजाब की सतलुज नदी का पानी ‘गंग-केनाल’ के जरिये बीकानेर तक लाना और नहरी सिंचित-क्षेत्र में किसानों को खेती करने और बसने के लिए मुफ्त जमीनें देना उनका सबसे क्रांतिकारी और दूरदृष्टिवान कार्य था। श्रीगंगानगर शहर के विकास को भी उन्होंने प्राथमिकता दी, बीकानेर में ‘लालगढ़ पैलेस’ बनवाया। बीकानेर को जोधपुर से जोड़ते हुए रेलवे के विकास और बिजली लाने की दिशा में भी वे बहुत सक्रिय रहे। 1933 में लोक देवता रामदेवजी की समाधि पर एक पक्के मंदिर के निर्माण का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी मृत्यु 2 फरवरी 1943 को बम्बई में हुई थी।
पुरस्कार
1880 से 1943 तक उन्हें 14 से ज्यादा सैन्य-सम्मानों के अलावा 1900 में ‘केसरेहिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया था। 1918 में पहली बार 19 तोपों की सलामी दी गई, वहीं 1921 में दो साल बाद उन्हें अंग्रेजी शासन की ओर से स्थायी तौर पर 19 तोपों की सलामी योग्य शासक स्वीकार किया गया था।
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