उत्तर प्रदेश पर पूरे देश की निगाहें लगी थीं और हिंदुत्व एजेंडे के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में उभरे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो बाबा बुलडोजर के नाम से चर्चित भी हो गए थे। एक ओर खेतों में घूमते जानवर तो दूसरी ओर बुलडोजर और एनकाउंटर के माध्यम से अपने को ही कानून समझने के नाते विरोधी लोग उनमें तानाशाही प्रवृत्ति भी देख रहे थे। पर जनता अगर घटी सीटों के साथ भी उन्हें दूसरी बार मुख्यमंत्री बना रही है तो यह मानने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि भाजपा के राष्ट्रवादी आख्यान और उनकी प्रशासनिक शैली की जनता में स्वीकार्यता है। उसके विपरीत भाजपा की ही शैली में विपक्षी गठबंधन का ताना-बाना बुनने वाले अखिलेश यादव ने निश्चित तौर पर अपनी पार्टी और अपने नेतृत्व को प्रासंगिक बनाया है और प्रदेश में एक मजबूत विपक्ष बनकर उभरते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसके बावजूद यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि जाति जनगणना, पुरानी पेंशन और 300 यूनिट फ्री बिजली पर आधारित उनके सामाजिक न्याय के दर्शन को जनता ने शासन करने लायक नहीं माना है। लेकिन सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है पंजाब, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में कांग्रेस का पतन। अगर कांग्रेस किसान आंदोलन के असंतोष पर सवारी करके पंजाब की सत्ता कायम रख पाती और उत्तराखंड में भाजपा को हटा पाती तो एक उम्मीद बन सकती थी कि वह 2024 के चुनावों में सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन को चुनौती देने वाली पार्टी बन सकती है। लेकिन कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन और पंजाब में आम आदमी पार्टी के शानदार प्रदर्शन ने संकेत दे दिए हैं कि या तो 2024 में भी भाजपा नीत एनडीए के विरुद्ध कोई मजबूत विपक्षी गठबंधन नहीं उभर पाएगा और अगर उभरेगा तो उसमें कांग्रेस की प्रमुख भूमिका नहीं रहेगी।
देश में भाजपा की मजबूत होती राजनीति व उसमें योगी के रूप में उभरा नया आक्रामक नेतृत्व संकेत दे रहा है कि वहां भी राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए समीकरण बदलेंगे। इस चुनाव का एक पेंच जनांदोलन व चुनावी राजनीति का रिश्ता भी है। इतने बड़े आंदोलन के बावजूद उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में भाजपा का लौटना व उसी आंदोलन में संदिग्ध भूमिका के आरोप झेलने वाली पार्टी को पंजाब में प्रचंड बहुमत मिलना हैरान करने वाला है। इसलिए शायद सही है कि जनांदोलन किसी एक पार्टी के वोटों के समानुपाती नहीं होता। इससे केंद्र में मजबूत सरकार के कायम रहने की संभावना प्रबल व गठबंधन की सरकारों का दौर लौटने की संभावना क्षीण हुई है। कुछ लोग इसे राष्ट्र के लिए अच्छी तो दूसरे लोग इसे लोकतंत्र के लिए चिंताजनक स्थिति कह सकते हैं। बसपा के संस्थापक कांशीराम कहते थे कि हमें केंद्र में मजबूत नहीं, मजबूर सरकार चाहिए। कैसी विडंबना है कि केंद्र और राज्य में मजबूत सरकारें बनने के साथ उनकी पार्टी समाप्त होती जा रही है। दलित राजनीति का यह अवसान इस चुनाव का एक महत्त्वपूर्ण फलित है।