बीच-बीच में धरोहर से खिलवाड़ का विरोध कर रहे संगठनों की भीड़ दिखती तो दुकानदारों का आक्रोश भी फूटता दिखता। कुल मिलाकर पहले दिन चारों ओर लाचारी, निराशा और गुस्सा माहौल पर भारी था। चौपड़ पर बैठने वाले फुटकर व्यापारी, ताला-चाबी, सब्जी, मसाले, चाट खोमचे वाले वहां नहीं थे। हनुमान मन्दिर के पास थडिय़ां लगाकर पूजन सामग्री, किताबें, माला बेचने वालों का रोजगार भी उजड़ गया। अब छह महीने (सरकारी दावे) रोजी-रोटी कैसे चलेगी? कोई नहीं जानता?
इसके ठीक उलट चांदपोल, किशनपोल, त्रिपोलिया, चौड़ा रास्ता, गणगौरी बाजार की गलियों पर तो जैसे आफत टूट पड़ी थी। वाहनों, ठेलों, रिक्शों की ऐसी रेलमपेल कि पैदल चलना किसी जोखिम से कम नहीं। एक गली पार करने में ही आधा घंटे से ज्यादा लग गया। जयपुर के आराध्य गोविन्द देव मन्दिर में जन्माष्टमी पर्व का माहौल। हर कोई दर्शनों को आतुर। संकरी गलियां आज उफनती यमुना से ज्यादा भयावह लग रही थीं। नन्हे कान्हा को तो वासुदेव ने नन्द गांव पहुंचा, कंस से बचा लिया था लेकिन कान्हा के दर्शनों के बिना भोजन-पानी नहीं लेने वाले शहर के हजारों बुजुर्ग, स्त्री-पुरुष गोविन्द के दरबार कैसे पहुंचेंगे इसकी ‘किसी को फिक्र नहीं’।
बच्चे सुबह तो स्कूल चले गए, लेकिन दोपहर में लौटे तो जैसे आफत से गुजरकर। घंटों, ऑटो रिक्शों में ही सो गए। पहले दिन यह हाल था तो आने वाले त्योहारी दिन कितने संकट के होंगे, सहज ही सोचा जा सकता है। प्रशासन ने वैकल्पिक मार्ग तो सुझा दिए, लेकिन बिना व्यवस्था कब कोई हादसा हो जाए इसकी आशंका हर वक्त रहेगी। शहर में जहां-जहां से भी गुजरे सब की जुबां पर मेट्रो थी। हर कोई विरासत को होने वाले नुकसान से चिन्तित था।
कहीं दबी जुबां में तो कहीं खुलकर विरोध कर रहे थे। सरकार से पुनर्विचार की मांग के साथ सबसे ज्यादा गुस्सा जनप्रतिनिधियों के प्रति था। आज जनता बेबस है लेकिन रोजी-रोटी और परिवार की चिन्ता वक्त आने पर कहीं बड़े ‘दरख्त’ न गिरा दे।