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एक दीया तो जला देते!

यह सही है कि शहर का विकास जरूरी है। शहरवासी इसके लिए हर मदद, हर कष्ट के लिए तैयार हैं, लेकिन अपने पुरखों की विरासत की कीमत पर तो कदापि नहीं।

Sep 07, 2016 / 04:51 pm

balram singh

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पूरा देश आज अड़सठवां स्वाधीनता दिवस मना रहा है। सारा राष्ट्र जगमग है। दिल्ली के लाल किले से लेकर प्रदेश की विधानसभा भवन तक। लेकिन गुलाबीनगर की शान, बड़ी-छोटी चौपड़ खंडहर, वीरान बनी इस शहर की बेरुखी पर आंसू बहा रही हैं। गोविन्द की नगरी, तीज-गणगौर की साक्षी, गुरु पर्व, चेटीचंड की शोभायात्रा, ताजियों के अलम की गवाह, चौपड़ की सुध लेने वाला कोई नहीं है। जिस चौपड़ पर शहर की सुहानी शामें गुजरती थीं, जहां विभिन्न पर्वों पर बैण्ड स्वरलहरियां बिखेरते थे, स्वाधीनता दिवस पर झंडारोहण होते थे। पिछले 67 सालों में आजादी के न जाने कितने जश्न और उससे पहले स्वाधीनता के मतवालों को देखने वाली चार कोनों से जुड़ी लगभग 50 गुणा 50 फीट की चौपड़ आज मलबे का ढेर है। कोई वहां एक दीया भी जलाने नहीं पहुंचा। सरकार को फिक्र न प्रशासन को, जनता तो इतनी खुदगर्ज हो चुकी है कि पूर्वजों की यादों की तरह उनकी विरासत को भी बिसरा चुकी है। 
शहर में कहीं अवैध निर्माण हो तो तमाम कानूनों की किताबें और जाब्ता लेकर पहुंच जाता है प्रशासन। किसी स्मारक की एक ईंट कोई हिला दे तो पुरातत्व विभाग वाले कानूनी कार्रवाई कर जेल भेजने की बात करते हैं। लेकिन यहां तो कानूनों का सरासर उल्लंघन कर पुरामहत्व के स्थानों, स्मारकों को तोड़ा जा रहा है सब मौन हैं। लोकतंत्र के तीनों स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका भी। गांधी जी के तीन सूत्र थे- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। ये कुछ इस प्रकार हो गए लगते हैं-हमने कुछ नहीं देखा, हम कुछ नहीं बोलेंगे, बाकी हम सब कर देंगे। 
पुरातत्व विभाग की हैरिटेज कमेटी गुरुवार को छोटी चौपड़ पहुंची। 

इसके मुखिया जयपुर से परिचित हैं। जलमहल मामले में कानून से कई महीने भागने वाले चौपड़ की खुदाई में निकले ऐतिहासिक कुंड को तोड़कर इसका अस्तित्व मिटाने का षडयंत्र करनेे में जुटे हैं। यहां जल पहुंचाने वाले गौमुखों को तोड़ा जाएगा। म्यूजियम में रखा जाएगा। ज्योतिष और ज्यामितीय आधार पर तैयार कराए गए इन कुंडों को तोडऩे की पूर्व शासक रामसिंह की भी हिम्मत नहीं हुई थी। उन्होंने इन्हें मिट्टी से पाटा भर था। पूर्व स्वायत्त शासन मंत्री भंवरलाल शर्मा ने 90 के दशक में इनका आकार बदलना चाहा था, क्या हुआ? भारी विरोध के चलते वापस चौरस करना पड़ा। अब क्यूं कोई आगे नहीं आ रहा? क्या भूल गए सब अपनी विरासत? मेट्रो के लिए खुदाई के रंग दिखने लगे हैं। चांदपोल में कई पुरानी इमारतों में दरारें दिखने लगीं हैं। बाशिंदों की रातें आशंकाओं में कटने लगी हैं। बाजारों का दम घुटने लगा है। 
शवयात्रा को बरामदों से गुजारना पड़ रहा है। यह सही है कि शहर का विकास जरूरी है। शहरवासी इसके लिए हर मदद, हर कष्ट के लिए तैयार हैं, लेकिन अपने पुरखों की विरासत की कीमत पर तो कदापि नहीं। आधुनिकता और विकास का दावा करने वालों की पोल तो उनके बनाए पुल और सड़कें रोज खोल रही हैं। बूंदी का पुल शुरू होने से पहले ही धंस गया। पांच साल चलने का दावा जिन सड़कों का होता है, वे एक महीने भी नहीं चल पाती। विकास के मसीहाओं पर से विश्वास उठने लगा है। क्यों पहले चरण की मेट्रो चलाने में लगातार देरी होती जा रही हैï? जिसे पिछली अगस्त में चलाने के दावे थे, वे अब तक पूरे क्यों नहीं हो पा रहे? 
 इस डर से कहीं इसका हाल भी खासा कोठी ब्रिज जैसा न हो जाए? क्यूं निर्माण से पहले मेट्रो के अतिरिक्त रैक मंगा लिए गए। यार्ड में जंग खाने के लिए या कुछ और ‘वजह’ थीं। जनता जवाब चाहती है। पहले मानसरोवर से सिंधी कैम्प तक मेट्रो चलाई जाए और उसका नफा-नुकसान समझा जाए। तब आगे की योजनाओं पर चलना लोकहितकर होगा। आखिर हर निर्माण में पैसा तो जनता का ही लगता है। हिसाब जानने का हक भी उसे पूरा होना चाहिए। विकास की डगर पर सरकार दिन दूना, रात चौगुना आगे बढ़े, लेकिन हमारी शान, हमारी विरासत को हमसे न छीने। नहीं तो, सब ढूंढते रह जाएंगे, अंधेरी चौपड़ों में गुम गुलाबी शहर को। 

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