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गुम हो गई स्टेशन से किताब की दुकान

Published: Nov 27, 2022 08:37:36 pm

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Patrika Desk

हो सकता है शब्द तो रहें हमारी दुनिया में, लेकिन किताबों की खुशबू, नई पत्रिकाओं के पन्नों की सरसराहट का एहसास नई पीढ़ी कैसे कर पाएगी। सवाल यह है कि उस एहसास के बगैर बड़ी हो रही पीढ़ी क्या शब्दों से वही जुड़ाव महसूस भी कर पाएगी?

गुम हो गई स्टेशन से किताब की दुकान

गुम हो गई स्टेशन से किताब की दुकान

विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक


यह सोच कर वाकई आश्चर्य होता है कि आखिर एक पूरी पीढ़ी कैसे लगभग 150 वर्षों से रेलवे स्टेशनों की पहचान बने बुक स्टालों के बगैर बड़ी हो सकती है। अब रेलवे स्टेशन आधुनिक हो गए हैं, लिफ्ट और एस्केलेटर तक लग गए हैं। कहते हैं देश के कई स्टेशन वल्र्ड क्लास हो गए हैं। इस बीच हमारी आंखें अब भी प्लेटफार्म पर प्रवेश करते ही सबसे पहले लकड़ी और सीसे से बने उस बुक स्टाल को ढूंढती हैं, जहां किसी बंदनवार की तरह लटके साप्ताहिक पत्रिकाओं के ताजे अंक दूर से ही आकर्षित करते थे। करीने से सजीं गुलशन नंदा, सुरेन्द्र मोहन पाठक ,रानू, वेद प्रकाश शर्मा से लेकर गुरुदत्त, आचार्य चतुरसेन, शरतचंद्र और प्रेमचंद की पुस्तकें हाथ में उठाने को आमंत्रित करती नजर आती थीं। कोई शक नहीं कि देश में पढऩे की आदत विकसित करने और फिर उसे बनाए रखने में रेलवे बुक स्टालों की अहम भूमिका रही है, जिसे ‘व्हीलर बुक स्टाल’ के नाम से जाना जाता रहा है। यह जानना वाकई सुखद लगता है कि देश में रेल के विस्तार के साथ 1877 में ही इलाहाबाद से ‘व्हीलर बुक स्टाल’ की शुरुआत हो गई थी।
बचपन में यात्राओं के प्रति आकर्षण की एक बड़ी वजह व्हीलर का वह बुक स्टाल भी रहा करता था। स्टेशन पर पहुंचते ही अभिभावकों की चिंता ट्रेन के लिए रहती होगी, हमारी कोशिश होती कि बुक स्टाल पर पहुंच कर पत्रिकाओं और कॉमिक्स से कैसे अपनी झोली भर लें। पत्रिकाएं भी बहुत थीं। नंदन, पराग, राजा भैया, चंदा मामा, मिलिन्द, चंपक, लोटपोट, मधु मुस्कान, नन्हें सम्राट, बालहंस और फिर बेताल, मेंड्रक के साथ चाचा चौधरी भी आ गए थे। कमाल यह कि हरेक पत्रिका की अपनी विशिष्टता और अपनी पहचान थी
यात्रा के दौरान पढऩे की आदत कुछ ऐसी थी, जब यात्रा वृतांत के प्रख्यात लेखक अमृत लाल वेगड को लिखना पड़ा कि, मुझे ट्रेन में वैसे यात्रियों को देख दुख होता, जो पूरी यात्रा के दौरान पढ़ते ही रहते थे। पढऩा ही था, तो घर क्या बुरा था, यात्रा पर निकले ही क्यों, निकले तो यात्रा का आनंद लो। उन्हें शायद ही अंदाजा होगा कि ऐसा भी समय आएगा जब यात्रा में पढऩे की परंपरा ही खत्म हो जाएगी।
कहने को ‘व्हीलर बुक स्टाल’ आज भी रेलवे स्टेशनों पर हैं। पहले प्लेटफार्मों के सौंदर्यीकरण या यात्रियों की सुविधा के नाम पर उसकी जगह कम से कम होते चली गई। फिर बीते कुछ वर्षों में उसे बुक स्टाल की बजाय मिली-जुली स्टाल में बदल दिया गया, जहां कोल्ड ड्रिंक, बिस्किट से लेकर साबुन और कंघी जैसी सामग्री भी बिकने लगी। किताबें पीछे गईं, अब तो दिखनी भी बंद हो गर्इं। यह बहाना अपनी जगह कि अब तो सारी किताबें और पत्रिकाएं ऑनलाइन उपलब्ध हैं, क्या जरूरत है बुक स्टालों की। सच यही है कि हम किताबों के बगैर भी जीना सीखने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन कैसे होंगे हम,बगैर किताबों के, बगैर छपे शब्दों के…आज व्हीलर के स्टाल पर सजी कोल्ड ड्रिंक की बोतलें सोचने को बाध्य करती हैं। हो सकता है शब्द तो रहें हमारी दुनिया में, लेकिन किताबों की खुशबू, नई पत्रिकाओं के पन्नों की सरसराहट का एहसास नई पीढ़ी कैसे कर पाएगी। सवाल यह है कि उस एहसास के बगैर बड़ी हो रही पीढ़ी क्या शब्दों से वही जुड़ाव महसूस भी कर पाएगी?
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