भारत व न्यूजीलैंड के संबंधों को यूं तो सिर्फ क्रिकेट और कॉमनवेल्थ की सदस्यता की साम्यता से जोड़ा जाता है लेकिन पिछले पांच वर्षों से दोनों देशों के बीच कई मामलों में समानता सामने आई है। न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री जॉन की, 2011 में भारत आए थे और आज से उनकी भारत यात्रा मुम्बई से शुरू होकर दिल्ली से होते हुए गुरुवार को कोच्ची में पूरी होगी। इन दिनों भारत अपनी विदेश नीति में दो बातों को फोकस कर रहा है। पहली न्यूक्लियर सप्लायर्स गु्रप (एनएसजी) की सदस्यता और दूसरी आतंकवाद का मुकाबला। यूं तो न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री के साथ एक बड़ा बिजनेस प्रतिनिधिमंडल भी आ रहा हैं पर समझा जाता है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जॉन की के बीच बातचीत का प्रमुख मुद्दा भारत को एनएसजी की सदस्यता का रहने वाला है। जून में सियोल में हुई बैठक में एनएसजी के 48 सदस्य देशों में से ग्यारह ने भारत के प्रति नकारात्मक रुख रखा था। इनमें चीन के तीखे तेवरों का साथ देने वाले देशों में न्यूजीलैंड भी शामिल था। उसने भी चीन की इसी बात को दोहराया कि अभी इस मसले पर और विचार-विमर्श की जरूरत है। हमारे प्रधानमंत्री न्यूजीलैंड के पीएम को यह बताने की कोशिश जरूर करेंगे कि भारत को एनएसजी की सदस्यता क्यों जरूरी है। परमाणु अप्रसार के मामले में भारत का रिकॉर्ड दुनिया की नजर में बहुत अच्छा है। हमने जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में पेरिस समझौते पर भी हस्ताक्षर कर इस बात का आश्वासन दिया है कि हम 2030 तक गैर शैलीय ऊर्जा संसाधनों से 40 फीसदी तक बिजली का उत्पादन करेंगे। इस तरह की बिजली के उत्पादन के लिए न्यूक्लियर तकनीक की आवश्यकता है। न्यूक्लियर ऊर्जा को तुलनात्मक रूप से स्वच्छ ऊर्जा माना जाता है। इसलिए न्यूजीलैंड को इस बात का समर्थन करना चाहिए कि भारत को एनएसजी की सदस्यता हासिल हो। नवम्बर में ही विएना में एनएसजी की मीटिंग होने वाली है। ऐसे में यहां दोनों देशों के बीच बनने वाली सहमति काफी महत्व रखती है। भारत के लिए यह अवसर इसलिए भी अहम है कि वह न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री से यह उम्मीद करता है कि जब दोनों देशों के प्रधानमंत्री संयुक्त वक्तव्य जारी करें तो आतंकवाद के मसले पर न्यूजीलैंड भी भारत के साथ खड़ा नजर आना चाहिए। भारत की विदेश नीति में आतंकवाद से लडऩे का मुद्दा हमेशा से अहम रहा है। इसीलिए 1996 से ही वह इस कोशिश में जुटा है कि संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर आतंकवाद की परिभाषा तो तय हो ही साथ ही उन पर भी सख्त कार्रवाई की जाए जो आतंकवाद को आश्रय देते हैं। जाहिर है इस सम्बन्ध में भारत का संकेत पाकिस्तान की तरफ है। पिछले कुछ माह से पाकिस्तान से भारत के संबंध तनावपूर्ण हैं। उरी हमले व भारत की ओर से 29 सितम्बर को की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद तो ये संबंध और कटुतापूर्ण हो गए हैं। न्यूजीलैंड के पीएम की यह यात्रा एकतरफा नहीं है। जाहिर हैं कि न्यूजीलैंड भी उभरती आर्थिक व्यवस्था वाले भारत से व्यावसायिक संबंध मजबूत करना चाहता है। क्योंकि शीत युद्ध के दौर में न्यूजीलैंड का दोस्त अमरीका था तो हमारी तत्कालीन सोवियत संघ से प्रगाढ़ता थी। इसलिए न्यूजीलैंड से हमारे संबंध मधुर तो रहे लेकिन प्रगाढ़ कभी नहीं रहे। शीतयुद्ध के बाद हमने लुक ईस्ट नीति पर गौर किया तो न्यूजीलैंड ने लुक वेस्ट की पर। न्यूजीलैंड से ब्रिटिश भारत के दौर में भी हमारे व्यापारिक सम्बन्ध रहे हैं। हमारे यहां से तम्बाकू, चीनी व चाय न्यूजीलैंड जाती थी और इसकी एवज में वहां से टिम्बर आता था। लेकिन न्यूजीलैंड हमसे 1974 के दौर में खफा हुआ जब हमने परमाणु परीक्षण किया। इसके बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में देानों देशों में फिर से सम्बन्ध थोड़े प्रगाढ़ हुए। फिर से वर्ष 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद दोनों देशों के सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव आता रहा। देखा जाए तो भारत- न्यूजीलैंड का राजनीतिक व सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है। हमारे शहरों जैसे नाम वहां भी है। भारतीय मूल के करीब दो लाख लोग वहां रहते हैं। करीब 23 हजार भारतीय विद्यार्थी वहां पढ़ते हैं। ऐसे में चीन के साथ न्यूजीलैंड के संबध केवल व्यावसायिक हैं और हमारे संबंध सामाजिक भी हैं। कृषि, पर्यटन व शिक्षा के क्षेत्र मेंं दोनों देशों की साझेदारी है। एक उम्मीद यह भी की जा रही है कि इस यात्रा से दोनों देशों के बीच सुरक्षा सहयोग की शुरुआत भी हो सकती है। दोनों देश संयुक्त नोसना अभ्यास कर चुके हैं। सूडान व कोसोवो में गई संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में दोनों देशों के जवान शामिल रहे हैं। जब हमारा पड़ोसी देश चीन आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान का खुला समर्थन करता दिख रहा है, भारत व न्यूजीलैंड के बीच सामरिक सहयोग से बेहतर नतीजे आ सकते हैं। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी गत मई में न्यूजीलैंड जाकर आए हैं। ऐसे में भौगोलिक दृष्टि से दूर दोनों देशों के बीच संबंध कारोबारी व सामाजिक दृष्टि से आगे सामरिक और सुरक्षा साझेदारी की नजदीकियों की ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं। प्रो. स्वर्ण सिंह अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार