ब्रेक्जिट यदि लागू होता है तो यह विश्व राजनीति की कुछ ऐसी घटनाओं में से एक होगा जिससे पूरी दुनिया प्रभावित हो सकती है। सोवियत संघ का विघटन भी उन्हीं में एक था, जिसने विश्व की दो ध्रुवीय राजनीति के शीतयुद्ध को समाप्त करते हुए अमरीका को अपना वर्चस्व स्थापित करने का मौका दे दिया था। उसके बाद दुनिया के बाजार को भूमंडलीकरण का नया पाठ पढ़ाया गया। ‘बड़ी मछली छोटी को खा जाती है’, इस सिद्धांत को लागू करते हुए 20वीं सदी के आखिरी दशक में पूरी दुनिया को ऐसी मछलियों के लिए खोल दिया गया। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई, जिसने यह सुनिश्चित किया कि कोई देश अपने यहां की छोटी मछलियों (उद्योग-व्यापार) को बड़ी मछलियों से बचाने की कोशिश न करे। इस व्यवस्था ने पूरी दुनिया पर गहराई से असर डाला है। जो अमीर थे, वे और अमीर हुए और जो गरीब थे और गरीब होते गए। विकसित देशों ने पूरा लाभ उठाया तो विकासशील देशों में मिला-जुला असर सामने आया। अमरीका और यूरोप को तो अपेक्षानुकूल फायदा मिला, पर अलग-थलग चल रहे चीन ने नीतियों में बदलाव करते हुए अप्रत्याशित सफलता हासिल कर ली और सोवियत संघ के विघटन के बाद भी रूस की ताकत कम नहीं हुई।
अमरीका व यूरोप को शायद ही यह उम्मीद रही हो कि एक दिन आर्थिक ताकत बनकर चीन मुकाबले में खड़ा हो जाएगा। कई मामलों में चीन न सिर्फ अमरीका को चुनौती दे रहा है बल्कि आगे निकल जाने का माद्दा भी दिखाने लगा है। भारत भी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में दस्तक दे चुका है। उदारीकरण की मलाई खाने वाले कई नए देश विकसित देशों की आंखों की किरकिरी बन रहे हैं। ऐसे में अब संरक्षणवाद का नया फलसफा लिखने की कोशिश हो रही है। अमरीका सहित कई विकसित देशों को अपनी आर्थिक चुनौतियों से निबटने के लिए वही पुराना रास्ता नजर आ रहा है, जिसे समाप्त करते हुए उदारीकरण की नई व्यवस्था शुरू की गई थी। चीन के साथ अघोषित व्यापार युद्ध और रूस के साथ अमरीका का नया तनाव पुराने दौर की याद ताजा कर रहे हैं। ब्रिटेन, यूरोपीय संघ से अलग होने को अपनी आर्थिक स्थिति से निबटने के तरीके के रूप में देख रहा है। जाहिर है इस उलटबांसी को आसानी से पचा पाना संभव नहीं है क्योंकि बाजार का संरक्षण और भूमंडलीकरण के सिद्धांत साथ-साथ नहीं चल सकते। इसलिए ब्रितानी जनता की दुविधा को भी आसानी से समझा जा सकता है, जो नया रास्ता तलाश रही है। दरअसल, भारत की जनता भी ऐसे ही असमंजस की शिकार है। हालांकि इस बात की उम्मीद कम ही है कि आर्थिक नीतियों पर यहां अगला चुनाव लड़ा जाएगा।