scriptब्रेक्जिट की दुविधा | Brexit: The dilemma of the British public can be easily understood | Patrika News

ब्रेक्जिट की दुविधा

locationजयपुरPublished: Jan 18, 2019 06:16:44 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

बाजार का संरक्षण और भूमंडलीकरण के सिद्धांत साथ-साथ नहीं चल सकते। इसलिए ब्रितानी जनता की दुविधा को भी आसानी से समझा जा सकता है।

Brexit

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यूरोपीय संघ से अलग होने की तारीख 29 मार्च जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, ब्रिटेन की दुविधा भी बढ़ती जा रही है। ब्रितानी संसद में प्रधानमंत्री टेरेजा मे सरकार के प्रस्तावों का भारी मतों से गिर जाना और उनके खिलाफ लेबर पार्टी के अविश्वास प्रस्ताव का 19 मतों के मामूली अंतर से पराजित होना, इसी दुविधा की अभिव्यक्ति है। दो साल पहले 29 मार्च 2017 को ही ब्रितानी सरकार ने ठीक दो साल बाद संघ से अलग होने का फैसला किया था। उसके पहले 23 जून 2016 को ब्रिटेन की जनता ने जनमत संग्रह में 52 फीसदी मतों से तब की सरकार के खिलाफ जाकर संघ से अलग होने के पक्ष में राय दी थी। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को इस्तीफा देना पड़ा था। संघ से अलग होने का फैसला, जिसे ‘ब्रेक्जिट’ के नाम से जाना जाता है, मात्र दो फीसदी मतों के मामूली अंतर से पारित होने का अर्थ यही था कि 48 फीसदी लोग इससे खुश नहीं हैं। बाद में आम चुनावों में भी इसका असर तब दिखा, जब ब्रेक्जिट की पक्षधर टेरेजा मे प्रधानमंत्री तो बनीं, पर उन्हें पूर्ण बहुमत नहीं मिला। तभी से ब्रेक्जिट पर असमंजस बढ़ता जा रहा है। प्रधानमंत्री टेरेजा ने अलग होने के लिए यूरोपीय संघ के साथ जो समझौते किए थे, उन्हें संसद ने बुधवार को मंजूरी नहीं दी। सरकार के प्रस्ताव 202 के मुकाबले 432 मतों के भारी अंतर से पराजित होने के बाद ब्रिटेन असमंजस के नए दौर में पहुंच गया है, जहां फिर से समझौता करने, समझौते के बिना ही संघ से अलग होने, ब्रेक्जिट पर दोबारा जनमत संग्रह कराने या देश को आम चुनावों की ओर ले जाने जैसे कई विकल्प खुलते हैं। टेरेजा सरकार क्या रास्ता अपनाती है, यह जानना न सिर्फ रोचक होगा, बल्कि यूरोप को गहराई से प्रभावित भी करेगा।

ब्रेक्जिट यदि लागू होता है तो यह विश्व राजनीति की कुछ ऐसी घटनाओं में से एक होगा जिससे पूरी दुनिया प्रभावित हो सकती है। सोवियत संघ का विघटन भी उन्हीं में एक था, जिसने विश्व की दो ध्रुवीय राजनीति के शीतयुद्ध को समाप्त करते हुए अमरीका को अपना वर्चस्व स्थापित करने का मौका दे दिया था। उसके बाद दुनिया के बाजार को भूमंडलीकरण का नया पाठ पढ़ाया गया। ‘बड़ी मछली छोटी को खा जाती है’, इस सिद्धांत को लागू करते हुए 20वीं सदी के आखिरी दशक में पूरी दुनिया को ऐसी मछलियों के लिए खोल दिया गया। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई, जिसने यह सुनिश्चित किया कि कोई देश अपने यहां की छोटी मछलियों (उद्योग-व्यापार) को बड़ी मछलियों से बचाने की कोशिश न करे। इस व्यवस्था ने पूरी दुनिया पर गहराई से असर डाला है। जो अमीर थे, वे और अमीर हुए और जो गरीब थे और गरीब होते गए। विकसित देशों ने पूरा लाभ उठाया तो विकासशील देशों में मिला-जुला असर सामने आया। अमरीका और यूरोप को तो अपेक्षानुकूल फायदा मिला, पर अलग-थलग चल रहे चीन ने नीतियों में बदलाव करते हुए अप्रत्याशित सफलता हासिल कर ली और सोवियत संघ के विघटन के बाद भी रूस की ताकत कम नहीं हुई।

अमरीका व यूरोप को शायद ही यह उम्मीद रही हो कि एक दिन आर्थिक ताकत बनकर चीन मुकाबले में खड़ा हो जाएगा। कई मामलों में चीन न सिर्फ अमरीका को चुनौती दे रहा है बल्कि आगे निकल जाने का माद्दा भी दिखाने लगा है। भारत भी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में दस्तक दे चुका है। उदारीकरण की मलाई खाने वाले कई नए देश विकसित देशों की आंखों की किरकिरी बन रहे हैं। ऐसे में अब संरक्षणवाद का नया फलसफा लिखने की कोशिश हो रही है। अमरीका सहित कई विकसित देशों को अपनी आर्थिक चुनौतियों से निबटने के लिए वही पुराना रास्ता नजर आ रहा है, जिसे समाप्त करते हुए उदारीकरण की नई व्यवस्था शुरू की गई थी। चीन के साथ अघोषित व्यापार युद्ध और रूस के साथ अमरीका का नया तनाव पुराने दौर की याद ताजा कर रहे हैं। ब्रिटेन, यूरोपीय संघ से अलग होने को अपनी आर्थिक स्थिति से निबटने के तरीके के रूप में देख रहा है। जाहिर है इस उलटबांसी को आसानी से पचा पाना संभव नहीं है क्योंकि बाजार का संरक्षण और भूमंडलीकरण के सिद्धांत साथ-साथ नहीं चल सकते। इसलिए ब्रितानी जनता की दुविधा को भी आसानी से समझा जा सकता है, जो नया रास्ता तलाश रही है। दरअसल, भारत की जनता भी ऐसे ही असमंजस की शिकार है। हालांकि इस बात की उम्मीद कम ही है कि आर्थिक नीतियों पर यहां अगला चुनाव लड़ा जाएगा।

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