इसमें कोई शक नहीं कि टी.एन. शेषन के समय से देश में काफी चुनाव सुधार हुए हैं। मतदान केंद्रों पर कब्जे अब लगभग इतिहास की बात हो गए हैं। कई चरणों में मतदान होने व सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती के बावजूद चुनावी हिंसा भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार करती रहती है। अफसोस इसका भी कम नहीं है कि पश्चिम बंगाल जैसा भद्र राज्य भी चुनावी हिंसा में शामिल है। दोषी कोई भी हो, लेकिन पक्ष-विपक्ष के दर्जनों राजनीतिक कार्यकर्ता पश्चिम बंगाल में, पिछले कुछ महीनों में इसके शिकार हो चुके हैं। इसे रोकना सबसे बड़ी चुनौती है। शायद इसीलिए वहां चुनाव आठ चरणों में हो रहे हैं।
इसी तरह की एक और चुनौती है, राजनीतिज्ञों की बिना तथ्यों वाली स्तरहीन भाषणबाजी। यदि इस रोग को नियंत्रित कर लिया जाए, तो चुनावी हिंसा को भी काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। जिसके जो मन में आता है, वह बोल कर चला जाता है। जिस पर जो आरोप लगाना होता है, लगा देता है, मानो चुनाव नहीं ‘मारो और भागो’ का खेल चल रहा हो। कोई सवाल नहीं करता कि आपने जो आरोप लगाए हैं,
उनके पीछे आधार क्या है? जरूरत बस इस बात की है कि आयोग राजनेताओं को पाबंद कर दे और जो भी इस सीमा को लांघे, उसके खिलाफ न्याय की देवी की तरह आंखों पर पट्टी बांध कर कार्रवाई करे। पिछले कुछ सालों का इतिहास गवाह है कि इस मामले में बहुत कुछ नहीं हुआ। जितना जरूरी निष्पक्षता से चुनाव होना है, उतना ही जरूरी सभी दलों को बराबर का मैदान मिलना भी है। जब किसी को समतल और किसी को ऊबड़-खाबड़ मैदान मिलता है, तो उसी में खराबे के बीज डल जाते हैं। चूंकि पांचों राज्यों में सत्ता की लड़ाई सभी दल इस बार युद्ध जैसी तैयारी से लड़ रहे हैं, इसलिए चुनौती हल्की नहीं होगी, खास तौर पर कोविड के दौर में। उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार की तरह न केवल कोरोना से बचाव के पूरे प्रबंध होंगे, बल्कि पूरी प्रक्रिया ऐसी होगी, जिसमें किसी दल को कुछ भी कहने का मौका नहीं मिलेगा।