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सहजीवन के सिद्धांत के विरुद्ध बदलती हुई खेती

Published: Jun 22, 2022 09:19:48 pm

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Patrika Desk

पहले भूसा किसानी का एक सहउत्पाद हुआ करता था, जो फसल के साथ अपने-आप ही बड़ी मात्रा में पैदा हो जाता था, पर नई खेती ने उसे एक उत्पाद के रूप में बदल दिया है, जिसके लिए अलग से व्यवस्था करनी होती है। संयुक्त परिवारों के कम होते जाने का भी संकट है, क्योंकि देखरेख करने वाले उतने लोग नहीं हैं। ऐसे में सहज पशुपालन की कल्पना नहीं हो सकती।

सहजीवन के सिद्धांत के विरुद्ध बदलती हुई खेती

सहजीवन के सिद्धांत के विरुद्ध बदलती हुई खेती


राकेश कुमार मालवीय
खेती-किसानी और पर्यावरणीय विषयों के टिप्पणीकार

कभी देश में मनुष्य के लिए खाने का संकट था। उसने अपने जीवट से उन परिस्थितियों से पार पा लिया। आज गोदामों में इतना अनाज होता है कि साल-दो साल पैदावार न भी हो तो हम अपने पेट भर सकेंगे। अब तो हम खाद्यान्न के बड़े निर्यातक भी हैं, पर इसी दौर में पालतू पशुओं (गोवंश) के भोजन को लेकर स्थिति उलट बनती जा रही है। ऐसा पिछले कई सालों से हो रहा है। यह समस्या अब लगातार बढ़ती जा रही है। पहले गेहूं के साथ दोगुना-तिगुना सूखा चारा (भूसा) अपने आप ही हो जाता था, पर मशीनों वाली आधुनिक फटाफट खेती ने इस तरीके को ही बदल दिया है। मनुष्यों का खाना तो खूब पैदा कर रहे हैं, पशुओं के भोजन की फिक्र हमें नहीं है।
यह धरती केवल मनुष्यों के लिए नहीं बनी है। हमारे समाज को प्रजा कहा गया है, और प्रजा में मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़ सभी आते हैं। मेधावान मनुष्य इन सभी का ख्याल रखते हुए अपने विकास का रास्ता चुनता है, लेकिन पिछले तीन-चार दशकों के विकास में मनुष्य स्वार्थी होता गया है, उसने विकास के केन्द्र में खुद को ज्यादा रखा है, जबकि इससे पहले मनुष्य और बाकी इकाइयां सहजीवन के सिद्धांत को मानती चली आई हैं, एक अद्भुत संतुलन रहा है। पर बीते तीस-चालीस सालों में हम बहुत तेजी से सब कुछ बदलता देख रहे हैं। कई बार तो समझ नहीं आता कि बदलाव अच्छे के लिए हो रहा है या कुछ गड़बड़ हो रही है।
खेती से पशु दूर हो गए, विकसित गांवों में बैल से ज्यादा ट्रैक्टर हैं, पोला अमावस पर पूजा करने के लिए अब केवल मिट्टी के बैल हैं। खेती एक अलग धंधा है और पशुपालन अलग। आंकड़ों में देखेंगे तो मध्य प्रदेश में 2007 में 4 करोड़ से ज्यादा पशुधन था। 2007 से 2012 के बीच में गोवंशीय पशुधन में 10.5 प्रतिशत, भैंसवंशीय पशुधन में 10.3 प्रतिशत और बकरियों की संख्या में तकरीबन 20.8 प्रतिशत की कमी पाई गई थी। 19वीं पशु संगणना 2012 में मध्य प्रदेश में कुल 3.63 करोड़ पशुधन हो गया। हालांकि 20वीं पशु संगणना 2019 में यह बढ़कर 4.6 करोड़ हो गया। 19वीं और 20वीं पशु जनगणना में पशुओं की संख्या बढऩा सुखद है, पर देखना होगा कि इसमें डेयरी व्यवसाय का हिस्सा कितना है, और घर-घर होने वाले सहज पशुपालन का कितना। गोवंश पूजने वाले समाज में उनके अकाल मरने की खबर आती है तो सोचने में आता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? फिर देखते हैं कि उनके लिए भूसा नहीं है, कहीं है भी तो उसकी कीमतें आसमान पर हैं, मशीनों ने किसानों की क्षमताएं बढ़ाईं, नतीजा अब कोई खाली जगह नहीं है। गांवों से चरागाहों और गोचर की जमीन मशीनें निगल गई हैं, खेतों में अगली फसल लेने के लिए पराली जला दिए जाने के कारण भूसे का अतिरिक्त उत्पादन ठप है। पहले भूसा किसानी का एक सहउत्पाद हुआ करता था, जो फसल के साथ अपने-आप ही बड़ी मात्रा में पैदा हो जाता था, पर नई खेती ने उसे एक उत्पाद के रूप में बदल दिया है, जिसके लिए अलग से व्यवस्था करनी होती है। संयुक्त परिवारों के कम होते जाने का भी संकट है, क्योंकि देखरेख करने वाले उतने लोग नहीं हैं। ऐसे में सहज पशुपालन की कल्पना नहीं हो सकती।
एक ओर हम रासायनिक खेती के संकटों को समझते हुए प्राकृतिक या जैविक खेती की वकालत करते हैं, लेकिन उसके लिए संसाधनों पर ध्यान कहां हैं? जानकार कहते हैं कि गोवंश के बिना कुदरती खेती नहीं हो सकती, और नए जमाने की खेती में गोवंश सिमटता ही जा रहा है, इस विरोधाभास से निकलना होगा, रास्ता निकालना होगा। क्या हम एक पल ठहरकर सोचेंगे कि क्या यह सही है? क्या यह मनुष्यता के पक्ष में है? मशीनों का विरोध नहीं है, लेकिन इनके संतुलित उपयोग को जरूर परखना होगा कि हम किस हद तक जाएंगे? आखिर कितनी कीमत चुकाएंगे?
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