अर्जित धन का कितना-कितना अंश कहां-कहां खर्च होना चाहिए, यही वृत्ति संस्कार है। यह व्यक्ति जन्म से सीखकर नहीं आता। संस्कृति और सभ्यता ही यह संस्कार देती है। पूरे देश पर दृष्टि डालकर देखें तो जैन समाज अग्रणी दिखाई पड़ेगा। यहां तक कि अन्य सम्प्रदायों के धार्मिक स्थलों के रख-रखाव में भी जैनियों की महती भूमिका नजर आएगी। विश्व परिदृश्य में छाए हुए हिंसा के बढ़ते कदमों को अहिंसा के प्रसार से कम कर सकते हैं। नशा मुक्ति और अपरिग्रह का नया वातावरण विश्व पटल पर रख सकते हैं। समाज को खुद आगे बढ़ाकर सभी धर्मों से जोडऩे की पहल करनी चाहिए।
इस दृष्टि से चातुर्मास, समाज को संजीवनी देता है। जहां सभी धर्मों के संत बैठकर देश की मूलभूत समस्याओं, परिवर्तन के नए आयामों, सामाजिक कुरीतियों आदि पर चिंतन-मनन करके आध्यात्मिक विकास का रोडमैप बना सकते हैं। इससे पूरा देश एकता के सूत्र में भी बंधा रहेगा।
जैन समुदाय को सभी धर्मों के सिद्धांतों, रिवाजों और परम्पराओं के अध्ययन का वातावरण पैदा करने में भी भूमिका निभाने की आवश्यकता है। संतों के बीच सभी धर्मों के विशिष्ट ग्रंथों के अध्ययन को प्रोत्साहित करना समय की मांग भी है और आध्यात्मिक दृष्टि के विकास को तकनीक के युग में प्रतिष्ठित भी रखेगी। आने वाली पीढ़ी को अन्य धर्मों के बीच जैन धर्म का विशिष्ट स्वरूप भी समझ में आएगा। आज तो नई पीढ़ी को जैन धर्म में शिक्षित करने के लिए राष्ट्र स्तर पर भी साहित्य उपलब्ध नहीं है। माता-पिता अनभिज्ञ हैं। पूरी नई पीढ़ी टीवी और मोबाइल फोन के हवाले है। अन्य समाज के बीच जो संस्कारों की भेद रेखा थी, वह मिटती जा रही है।
हमारी तीसरी पीढ़ी हमारे हाथ से निकल रही है। हमारी नाक के नीचे सब कुछ बदल रहा है और हम बच्चों की जिद के आगे समर्पित होने में गर्व महसूस करने लगे हैं। क्या इसमें जैन धर्म की भावी तस्वीर दिखाई पड़ती है? जैन समुदाय इस समस्या पर भी नियमित कार्य करे। हम तो पहले ही अल्पसंख्यक बनकर मुख्यधारा से बाहर आ गए हैं। नई व्यवस्था पर नए चिंतन के साथ समाज का सर्वांगीण विकास करना है तो नए संकल्प भी करने होंगे। हमारे फल, हमारी छाया समाज को मिले, ऐसे बीजों का निर्माण करना है। हम ही विश्व को हिंसा-मुक्त समाज दे सकते हैं।
धर्म और व्यवहार भिन्न हैं। धर्म सिद्धांत पक्ष है, जिसमें समझौता नहीं होता। हर व्यक्ति का अपना-अपना धर्म होता है। किन्हीं दो व्यक्तियों का धर्म एक जैसा नहीं हो सकता। सामूहिक रूप तो सम्प्रदाय का होता है। सम्प्रदाय व्यवहार पक्ष है, नीति का क्षेत्र है, मतभेदों का क्षेत्र है। आज मतभेद प्रमुख हो गए, धर्म गौण रह गया। सम्प्रदायवाद भी भीतर में तो कट्टर होता जा रहा है, संकीर्णता की ओर बढ़ रहा है। जबकि धर्म तो मुक्ति का मार्ग है। स्वार्थ और अहंकार किसी भी संस्था को प्रभावी नहीं होने देते।
पहली आवश्यकता एक विभाग खोलने की है जो जैन सिद्धांतों को प्रचारित करके गैर जैन समुदायों में स्थान बना सके। क्या महावीर का समवशरण सबके लिए नहीं था? तब आज हमारे संत क्यों अपने-अपने सम्प्रदायों की निजी सम्पदा बनकर रह गए? अन्य सम्प्रदायों के बीच, जैन उद्बोधन कैसे ठहर-सा गया? आज हर जैन मुनि के चारों ओर उन्हीं के सम्प्रदाय के अनुयायियों का घेरा, उन्हीं का आतिथ्य, चातुर्मास प्रबंध आदि क्या यह संदेश नहीं देते कि अन्य समुदाय वर्ग यहां वांछनीय नहीं है?
जैन समुदाय एवं स्वयं संत अन्य धर्मों एवं समुदायों के ग्रंथों एवं सिद्धांतों का अध्ययन कितना कर पाते हैं। उनके प्रवचनों में तो ऐसा नहीं झलकता। नई पीढ़ी के संत भी इस दृष्टि से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं, किन्तु अपने समुदाय की सांसारिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। स्वयं के प्रचार-प्रसार या लोकेषणा के मार्ग पर भी निकल पड़े हैं।
सम्पूर्ण समाज मौन था, जब जैनियों को अल्पसंख्यक श्रेणी में रखने की बात चली थी। आज अभियान चलाने वालों की कामना तो पूरी हो गई, किंतु समुदाय को क्या लाभ मिला। आप देश की मुख्यधारा से बाहर निकल गए। चंदा देने में, समाज सेवा में सबसे अग्रणी समुदाय अपने अधिकारों के लिए कोटा-सिस्टम की लाइन में खड़ा हो गया। क्या इससे समाज का सम्मान बढ़ा? कुछ छात्रों को हो सकता है कॉलेजों में भर्ती में सुविधा मिल गई हो, जिसका हमारे लिए कोई अर्थ नहीं है। समाज ठान ले तो हर वर्ष किसी राज्य में जैन विश्वविद्यालय खोलने की क्षमता रखता है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में किसी से पीछे नहीं हैं। इसके बावजूद हमें अपमान का यह घूंट (दाता को अपने लिए भी मांगना पड़े) क्यों पीना पड़ रहा है। आने वाली पीढिय़ां नई समाज व्यवस्था में इसका उत्तर तो मांगेंगी।