भारत में 2011 की जनगणना के आंकडों के अनुसार 5 से 14 वर्ष तक के 10 मिलियन से अधिक बच्चे बालश्रम का शिकार हैं। वस्तुत: संयुक्तराष्ट्र के अनुसार 18 वर्ष, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार 15 वर्ष, अमरीका में 12 वर्ष और भारत में 14 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों को बाल श्रमिक माना जाता है। इस समस्या के मद्देनजर भारत में 1979 में सरकार ने गुरुपाद स्वामी समिति का गठन किया था। गुरुपाद स्वामी समिति की सिफारिश में गरीबी को मुख्य कारण माना गया और ये सुझाव दिया गया कि खतरनाक क्षेत्रों में बाल मजदूरी पर प्रतिबंध लगाया जाए एवं उन क्षेत्रों के कार्य के स्तर में सुधार किया जाए। साथ ही कहा कि बाल मजदूरी करने वाले बच्चों की समस्याओं के निराकरण के लिए बहुआयामी नीति की जरूरत पर भी बल दिया गया। वर्ष 1986 में समिति के सिफारिश के आधार पर बाल मजदूरी प्रतिबंध विनियमन अधिनियम अस्तित्व में आया, जिसमें विशेष खतरनाक व्यवसाय व प्रक्रिया के बच्चों के रोजगार एवं अन्य वर्ग के लिए कार्य की शर्तों का निर्धारण किया गया।
इसके बाद सन 1987 में बाल मजदूरी के लिए विशेष नीति बनाई गई, जिसमें जोखिम भरे व्यवसाय एवं प्रक्रियाओं में लिप्त बच्चों के पुनर्वास पर ध्यान देने की आवश्यकता पर जोर दिया गया। 10 अक्टूबर 2006 तक बालश्रम कानून को इस असमंजस में रखा गया कि किसे खतरनाक और किसे गैर खतरनाक बाल श्रम की श्रेणी में रखा जाए। उसके बाद बाल श्रम निवारण अधिनियम 1986 में संशोधन कर ढाबों, घरों, होटलों में बालश्रम करवाने को भी दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया।
बाल अधिकारों के संरक्षण और बालश्रम प्रतिषेध के संदर्भ मे देश में पर्याप्त कानून हैं, लेकिन इस दिशा में सरकारी तंत्र की शिथिलता तथा समाज की उदासीनता के कारण इस महत्त्वपूर्ण समस्या का निराकरण नहीं हो पा रहा है। इस कारण बच्चों का ना केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक शोषण भी हो रहा है, जो सीधा देश के भविष्य को प्रभावित करता है।। इसके समाधान के लिए कानूनों की पालना के साथ गरीबी की समस्या पर भी प्रहार की आवश्यकता है, ताकि कोई परिवार अपने बच्चों को मजदूरी पर न भेजे।