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सयानी हो रही हैं बच्चों की किताबें

शैक्षिक प्रकाशनों से आगे: कल्पनाशील कहानी व चित्र पुस्तकों का खुलने लगा है पिटारा

जयपुरSep 16, 2024 / 09:51 pm

Nitin Kumar

योगेन्द्र यादव
‘स्वराज इंडिया’ के सदस्य और ‘भारत जोड़ो अभियान’ के राष्ट्रीय समन्वयक
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पिछले महीने मुझे एक खूबसूरत तोहफा मिला। यह तोहफा ‘समय पोस्ट’ का बेहतरीन तरीके से तैयार, डिजाइन और पैक किया गया एक बॉक्स था। इसमें गुलजार की बच्चों के लिए लिखी गई 14 किताबें थीं, जिनमें एलन शॉ का शानदार चित्रांकन है। ज्यादातर लोग नहीं जानते कि प्रसिद्ध गीतकार-कवि गुलजार बच्चों के लिए बेहतरीन कहानीकार भी हैं। इस सेट में मेरी पसंदीदा किताबें हैं- ‘ऊटपटांग’ और ‘आपा का आपड़ा’। ऐसी बेसिरपैर की रसीली तुकबंदियां बांग्ला कवि सुकुमार राय की प्रसिद्ध कृति ‘आबोल ताबोल’ की याद दिलाती हैं। और ‘ये कव्वे काले काले’ इस रहस्य से पर्दा उठाती है कि कौवे ने काला रंग क्यों चुना। इकतारा (इम्प्रिंट: जुगनू) की यह नई प्रस्तुति कोई पहली पेशकश नहीं थी। इससे पहले भी विश्व पुस्तक मेले में बच्चों के लिए प्रकाशित इस प्रकाशन की पुस्तकों की विविधता और गुणवत्ता मुझे मोहित कर चुकी थीं द्ग जहां उनके स्टॉल पर विशाल चित्र पुस्तकें, पोस्टर, कविता कार्ड, कहानी पुस्तकें और लघु उपन्यासों के साथ-साथ ‘प्लूटो’ और ‘साइकिल’ नामक बाल पत्रिकाएं प्रदर्शित की गई थीं।
जाहिर है बाल साहित्य की दुनिया उन दिनों से बहुत आगे निकल चुकी है जब मेरी पत्नी और मैं अब 25 और 20 साल के हो चुके अपने बच्चों के लिए, स्तरीय भारतीय भाषाओं की पुस्तकें ढूंढने के लिए परेशान रहते थे। हमारी चिंता यह थी कि हमारे बच्चे अपनी बंगाली और हिंदी विरासत से कटकर केवल अंग्रेजी बोलने वाले बच्चे बनकर न रह जाएं। हमने पाया कि उस समय हिंदी में प्रकाशित पुस्तकें मेरे बचपन की अनाकर्षक और शब्दों से ठूंसी गई अकबर-बीरबल, चाचा चौधरी, तेनालीराम और पंचतंत्र की कहानियों या वेताल या अमर चित्र कथा के कॉमिक्स (उन दिनों कभी-कभार कोई चमकदार सोवियत पुस्तक बोनस के रूप में भी मिल जाती थी) और चंपक, पराग और लोटपोट जैसी पत्रिकाओं से दो-चार सूत ही बेहतर थीं। तब सार्वजनिक क्षेत्र के दो प्रकाशकों नेशनल बुक ट्रस्ट और चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की बच्चों के लिए कुछ अच्छी किताबों, जैसे मिकी पटेल की ‘रूपा हाथी’, के बारे में भी पता चला। कभी-कभार हमें स्वतंत्र प्रकाशकों से भी कुछ गुणवत्तापूर्ण किताबें मिल जाती थीं, जैसे कमला भसीन की लोरीनुमा कहानी ‘मालू भालू’। वे महाराष्ट्र की एक प्यारी लोककथा ‘इक्की दोक्की’ के माध्यम से तूलिका बुक्स और वानर राजा ‘राजा कपि’ की शौर्यगाथा के माध्यम से करड़ी टेल्स की ऑडियोबुक्स तक पहुंचे। कथा बुक्स ने उनका परिचय अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों से करवाया। पर हमें नई पुस्तकों की काफी तलाश करनी पड़ी।
इन कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो भारत में बच्चों की पुस्तकें किस्सागोई, चित्रकारी और डिजाइन के मामले में यूरोप और अमरीका की प्रतिस्पर्धा में कहीं नहीं टिकती थीं। यह उस देश के लिए दु:खद स्थिति थी, जहां पौराणिक कथाओं और वृत्तांतों को कहने की एक समृद्ध मौखिक और लिखित परंपरा रही है। हमें शर्मिंदगी महसूस हुई कि हमारी कोई भी किताब जूलिया डोनाल्डसन की ‘द ग्रुफलो’ या उनकी किसी अन्य किताब के सामने क्यों नहीं टिक पाई। हम अंतत: इस सांस्कृतिक युद्ध में हैरी पॉटर से हार गए। सत्यजीत रे रचित ‘शोनार केला’ और उसके नायक फेलुदा के रोमांच को जे.के. राउलिंग की कल्पना के संसार हॉगवट्र्स के जादू-टोने ने पीछे छोड़ दिया। यदि बच्चों के साहित्य की गुणवत्ता को राष्ट्र के जीवन की गुणवत्ता का मापदंड माना जाए तो हम सिर उठाने लायक नहीं थे।
दो महीने पहले मैं चेन्नई में भारत में बच्चों की नई लहर की किताबों के अग्रदूतों में से एक तूलिका बुक्स की कार्यालयमय दुकान पर पहुंचा, ताकि देख सकूं कि बच्चों के साहित्य की स्थिति में कोई बदलाव आया या नहीं। मैंने देखा कि वास्तव में स्थिति बदल चुकी थी। ‘इक्की दोक्की’ जैसी शुरुआती पुस्तकों की सफलता से आगे बढ़ते हुए अब तूलिका के पास नौ भाषाओं में एक हजार से अधिक शीर्षकों का बड़ा संग्रह है। तूलिका की संस्थापक राधिका मेनन ने मुझे बड़े बदलावों के बारे में बताया, खासकर अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली किताबों में। इनमें कुछ बड़े वैश्विक नामों के अलावा मुख्य रूप से छोटे और स्वतंत्र प्रकाशक (जैसे इकतारा, एकलव्य, प्रथम, कथा, करड़ी टेल्स, तारा, पिकल योक, डकबिल और टॉकिंग कब) हैं, जो बच्चों के साहित्य में भारतीय संस्कृति और वास्तविकता को प्रतिबिंबित करते हुए प्रयोगात्मक और नवोन्मेषी प्रवृत्तियों की एक नई लहर का नेतृत्व कर रहे हैं।
हाल में आई पुस्तक ‘चिल्ड्रन बुक्स: एन इंडियन स्टोरी’ (संपादक शैलजा मेनन और संध्या राव) ने मुझे अपने जीवन के छोटे-मोटे अनुभवों और जानकारी से इतर बच्चों की पुस्तकों को लेकर नए चलन की व्यापक तस्वीर को देखने में मदद की। पिछले तीन दशकों में बच्चों की पुस्तकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, जिसे प्रकाशकों, लेखकों, चित्रकारों आदि की संख्या में वृद्धि के रूप में भी देखा जा सकता है। पाठक संख्या भी बढ़ी है, क्योंकि अब एक ऐसा वर्ग विकसित हो गया है जो पाठ्यपुस्तकों से इतर भी पढऩा चाहता है। अब विभिन्न शैलियों व श्रेणियों में किताबें उपलब्ध हैं। इनमें ग्राफिक उपन्यास और विशेष आयु खंड के हिसाब से पुस्तकें जैसे युवा-साहित्य शामिल हैं। साथ ही डिजाइन, अनुवाद और छपाई की गुणवत्ता में भी स्पष्ट सुधार देखा जा सकता है। इसके बावजूद दोनों संपादकों का निष्कर्ष है कि ‘भारत के विशाल, विविध और बहुभाषी चरित्र को देखते हुए बच्चों की पुस्तकों का उत्पादन और उपभोग दोनों ही वास्तविक आवश्यकताओं की दृष्टि से बहुत कम हैं।’
भारत में कुल प्रकाशित पुस्तकों में से बच्चों की किताबें (पाठ्यपुस्तकों को छोडक़र) करीब एक प्रतिशत ही हैं। इनके प्रकाशक और उपभोक्ता अब भी मुख्यत: ‘मध्यम’ वर्ग (शीर्ष 10 प्रतिशत के लिए प्रयुक्त व्यंजना) और ‘उच्च’ जाति के शहरी भारतीय हैं। बच्चों के लिए लेखन को अभी भी एक पूर्णकालिक करियर बनाना कठिन कार्य है। इस बाजार में अभी भी आयातित या विदेशी किताबों का प्रभुत्व है। साथ ही पौराणिक पुस्तकों और मौलिक एवं गतिविधि-आधारित पुस्तकों के कमजोर रूपांतरणों का बोलबाला है। सबसे चिंताजनक यह है कि बदलाव मुख्यत: अंग्रेजी और कुछ हद तक तक हिंदी तक सीमित है। हिंदी में इस बदलाव के अग्रदूत हैं इकतारा (जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है) और बाल विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के प्रकाशक एकलव्य, जिन्होंने शैक्षिक प्रकाशनों से आगे बढक़र कल्पनाशील कहानी व चित्र पुस्तकों का ‘पिटारा’ खोला है। बहुभाषी प्रकाशनों की कड़ी में प्रथम बुक्स, कथा और तूलिका हिंदी में भी अच्छी किताबें लेकर आते हैं। पर अब भी यह नया स्वर नक्कारखाने में तूती बराबर है। गुजराती में गिजुभाई बधेका, बंगाली में सुकुमार राय के लेखन और मलयालम में केरल शास्त्र साहित्य परिषद की समृद्ध विरासत के बावजूद मेरा मानना है कि अन्य भारतीय भाषाओं में स्थितियां और भी खराब हैं। मुझे खुशी होगी यदि मैं गलत साबित होता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि बच्चों की किताबों की यह नई लहर अन्य भाषाओं में बहुत कमजोर है या न के बराबर है, सिवाय अधिकांश भाषाओं में अब भी मौजूद बाल पत्रिकाओं में कभी-कभार दिखने वाले प्रयासों के।
बच्चों की किताबों की यह नवजात लहर शायद अब एक अहम मोड़ पर पहुंच गई है। अब यह भारतीय भाषाओं में एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में समेकित की जा सकती है, जिससे आने वाली पीढिय़ों के लिए एक बेहतर भविष्य का द्वार खुल सकता है।
इसे संभव बनाने के लिए आप और मैं चार काम कर सकते हैंद्ग पहला, माता-पिता के रूप में हम बच्चों के लिए किताबें खरीद सकते हैं, जन्मदिन के उपहार और ‘रिटर्न गिफ्ट्स’ के रूप में किताबें दे सकते हैं। हम अपनी खरीदारी भारतीय किताबों पर केंद्रित कर सकते हैं। किसी राष्ट्रवादी कारण से नहीं, बल्कि सिर्फ इसलिए कि बच्चे उन किताबों से बेहतर जुड़ाव महसूस करते हैं जो उनके अपने जीवन के अनुभवों को दर्शाती हैं। पर केवल किताबें खरीदना ही पर्याप्त नहीं है। हमें बच्चों को किताबें पढक़र सुनानी चाहिए तथा उनके साथ पढऩी चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे अपनी ‘मातृभाषा’ में, यानी घर और आसपास बोली जाने वाली भारतीय भाषा में किताबें पढ़ें। याद रखें, बच्चे अपनी मातृभाषा में सबसे अच्छा सीखते हैं और ज्ञानार्जन में बहुभाषी बच्चे ज्यादा तेज साबित होते हैं। दूसरा, स्थापित लेखक बच्चों के लिए लिख सकते हैं। बाल साहित्य कोई निम्न, सरल या उपदेशात्मक साहित्य नहीं है। हमारे समय के प्रमुख हिंदी लेखक विनोद कुमार शुक्ल ने बच्चों और युवा पाठकों के लिए लिखने पर ध्यान केंद्रित किया है। अन्य लेखक उनके उदाहरण का अनुसरण कर सकते हैं। तीसरा, सामाजिक संगठन और दानी जन इन बदलावों में मदद कर सकते हैं, जैसे- भारतीय भाषाओं में गुणवत्तापूर्ण किताबों के उत्पादन की लागत को कम करना, किताब लिखने के लिए कार्यशालाओं का समर्थन करना और लेखकों-चित्रकारों के लिए फेलोशिप प्रदान करना। साहित्य अकादमी ने बाल साहित्य पुरस्कार की शुरुआत की है। पर हमें हर भाषा में लेखकों, चित्रकारों, डिजाइनरों, संपादकों और बच्चों की किताबों के प्रकाशकों के लिए सैकड़ों पुरस्कारों की आवश्यकता है। मुझे उम्मीद है कि पंजाबी, तेलुगु, तमिल और बंगाली आप्रवासी, जो अपनी भाषा के प्रति अनुराग महसूस करते हैं, इसे पढ़ रहे होंगे।
अंत में, सरकार सार्वजनिक पुस्तकालयों और बच्चों की गुणवत्तापूर्ण किताबों की थोक खरीद के लिए अच्छी वित्तीय सहायता उपलब्ध करवा कर मदद का हाथ बढ़ा सकती है। कर्नाटक के ग्रामीण सार्वजनिक पुस्तकालयों का पुनरुद्धार कार्यक्रम देश के अन्य हिस्सों के लिए एक मॉडल हो सकता है, विशेष रूप से हिंदी राज्यों के लिए, जहां सार्वजनिक पुस्तकालयों की संस्कृति कमजोर है। यदि मुफ्त पाठ्यपुस्तकों पर खर्च की गई राशि का एक छोटा-सा हिस्सा स्कूलों के पुस्तकालयों और आंगनवाडिय़ों में रंग-बिरंगी और मजेदार कहानी की किताबें पहुंचाने के लिए खर्च किया जाए, तो हम अपनी आने वाली पीढिय़ों की बेहतर तरीके से मदद कर सकते हैं।

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