scriptचीन हमारा न तो दोस्त था, न कभी होगा (प्रो. पुष्पेश पंत) | China Ours was neither friend, nor ever will | Patrika News

चीन हमारा न तो दोस्त था, न कभी होगा (प्रो. पुष्पेश पंत)

Published: Oct 03, 2016 11:22:00 pm

चीन को लेकर पं. नेहरू से इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह तक गलतियां करते रहे
हैं। बड़ी गलती हमने उसे व्यापारिक सहयोगी बनाकर की है और वहीं चीन
पाकिस्तान का इस्तेमाल हमारे खिलाफ करता रहा है। इसलिए हमें चीन के खिलाफ
‘काउंटर’ नीति बनानी होगी।

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भारत गलतफहमी में रहता है कि जब भी हम पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाते हैं तो चीन प्रतिक्रिया करता है। वास्तव में चीन का भारत के प्रति नजरिया दुश्मनी भरा रहा है। अतीत में गौर करें तो चीन भारत के खिलाफ सामान्यीकरण, सुधार, दोस्ताना संबंध नहीं रहे। कभी वीजा नत्थी करके देता है। कभी हुुर्रियत नेताओं को आमंत्रण देता है। भारत के लोगों का वीजा अस्वीकार कर देता है।

भारत के प्रधानमंत्रियों को अरुणाचल प्रदेश का दौरा न करने की चेतावनी देता है। दलाई लामा को कठघरे में खड़ा करता है। चीन निरंतर हमारी सीमा में दखल देता है। हमारा रक्षा मंत्रालय लाचारी जताकर कह देता है कि सीमा निर्धारण न होने की वजह से ऐसा होता है। हम छिपाने की कोशिश करते हैं, चीन सिक्किम, लद्दाख में भारत पर दबाव बनाने की लगातार कोशिश करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को तिरस्कृत करने की कोशिश करता है।


भारत में चीन की पक्षधर एक ऐसी लॉबी है, जो दिखाने की कोशिश करती है, हमें चीन से परेशान नहीं होना चाहिए। वे कहते हैं, चीन भारत को आजमा कर देख रहा है। मेरे विचार से सबसे बड़ी गलती हमारी यह रही है कि पिछले 10 वर्षों में मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हमने चीन को बड़ा व्यापारिक साझेदार बना लिया।

भारत का व्यापार 70-80 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है, जिसमें से 30 प्रतिशत व्यापार हमारे हितों के विरुद्ध है। मनमोहन सिंह तो कहते थे कि आपसी व्यापार को देखते हुए सीमा विवाद ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिए। कुल मिलाकर चीन-पाकिस्तान धुरी में मेरा मानना है कि पाकिस्तान से भी बड़ी चुनौती हमारे सामने चीन है। भारत का जो हिस्सा पाकिस्तान ने नाजायज कब्जाया था, उसके न सुलझने का कारण भी चीन है। यदि भारत-पाक के रिश्ते सामान्य रहते, तो हो सकता है कि भारत पाकिस्तान से अपने हिस्से वापस ले लेता। लेकिन गिलगित का हिस्सा पाकिस्तान चीन को सौंप चुका है।

यहीं से व्यापारिक रास्ते के जरिए वह मध्य एशिया, खाड़ी देशों और अफ्रीका के पूर्वी तटों तक अपनी व्यापारिक पहुंच बनाना चाह रहा है। चीन ने इन इलाकों में जो गतिविधियां चला रखी हैं, वह भारत विरोधी तो हैं ही बल्कि भारत के खिलाफ यह उसके लिए अनिवार्यता सी हो गई है। भारत से कब्जाए अक्साई चिन इलाके में चीन अपना एटमी कचरा डालता है। पाकिस्तान ने जो परमाणु तस्करी की और जिसके जरिए वह भारत को ब्लैकमेल करता है, उसकी वजह तो चीन ही है। चीन ने भारत को झांसा देने में सफलता हासिल की है कि वह हमें एशिया में मदद कर सकता है। पर ऐसा हो ही नहीं सकता। चीन और भारत में से कोई एक ही प्रमुख शक्ति हो सकता है। दोनों की प्रतिद्वंद्विता जाहिर है।

फिर ये खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा संरक्षण, अफ्रीका या साइबेरिया में तेल उत्खनन के मसले हों। भारत के बुनियादी राष्ट्रीय हितों का टकराव चीन के साथ है, जो खत्म हो ही नहीं सकता। जब चीनी राष्ट्रपति भारत आते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें साबरमती के किनारे झूला झुलाते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि चीन का भारत के प्रति नजरिया बदल गया। चीन ने ऐसा दिखाया कि मोदी सशक्त नेता हैं और वह उनके साथ दोस्ताना रिश्ते रखेंगे। लेकिन हमें इस झांसे में नहीं आना चाहिए। हम चीन को लेकर पं. नेहरू से इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह तक गलतियां करते रहे हैं।

नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका या मालदीव के मामलों में भी चीन का प्रयत्न रहा है कि इन देशों में दखल देकर भारत के गले में जहरीली मोतियों की माला पहना दी जाए। चीन के साथ हमारे संबंधों में वर्ष 1962 के बाद से ही दरार आ गई थी पर उसके बाद जब भी हमारे प्रतिनिधिमंडल वहां जाते हैं या व्यापारिक रिश्ते बढ़ते हैं तो लगता है कि रिश्ते सामान्य हो गए। लेकिन चीन का दुश्मनी भरा रवैया जारी रहता है। पाकिस्तान का उपयोग भारत के खिलाफ चीन वर्ष 1962 से करता आ रहा है। दोस्ती की ठोस पहल चीन की ओर से कभी नहीं हुई।

उलटे भारत के लिए चीन चुनौती ही बनकर उभरा है। चाहे ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी का पानी रोकने का मसला हो, मसूद अ•ाहर को संयुक्त राष्ट्र से आतंकी घोषित कराने पर वीटो करने का रवैया हो या न्यूक्लियर सप्लायर गु्रप में हमारी सदस्यता रोकने का मसला हो। लेकिन इन सबके बीच आश्चर्य की बात है कि फिर भी चीन हमारा इतना बड़ा व्यापारिक साझेदार कैसे हो गया? न तो हम चीन से तेल, हथियार का आयात करते हैं। न खाद्यान्न आयात करते हैं। कैसे हमारा व्यापार चीन से खाड़ी देशों और अमरीका से भी ज्यादा हो गया।

कुल मिलाकर चीन ने हमें इस भ्रम का शिकार बनाया कि शंघाई को-ऑपरेटिव ऑर्गेनाइजेशन के सदस्य बन जाएंगे तो चीन के बराबर हो जाएंगे। हम लापरवाही से चीनी बाजार नीति के जाल में फंसते रहे। बड़ी देर से चीन के खिलाफ हमने विएतनाम से साझेदारी का प्रयास किया है। भारत को चीन को काउंटर करने की नीति सिर्फ पाकिस्तान के संदर्भ में नहीं बनानी चाहिए। हमें नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका जैसे पड़ोसियों के साथ मिलकर चीन को चुनौती देनी होगी।
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