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किसी भाषा में नहीं बांधा जा सकता सिनेमा को

Published: May 16, 2022 08:25:37 pm

Submitted by:

Patrika Desk

वास्तव में सिनेमा तो तब भी था जब सिनेमा के पास शब्द ही नहीं थे।’राजा हरिश्चंद्र’ किस भाषा की फिल्म थी? ‘पुष्पक’ जैसे प्रयोग भी तो हुए हैं सिनेमा में, इसीलिए आज जब सिनेमा के लोगों द्वारा सिनेमा और भाषा को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखने की कोशिश हो रही तो आश्चर्य होता है

किसी भाषा में नहीं बांधा जा सकता सिनेमा को

किसी भाषा में नहीं बांधा जा सकता सिनेमा को

विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक

भाई और बहन के बीच एक ही घिसा हुआ जूता है, बहन की चप्पल भाई खो चुका है। मॉर्निंग शिफ्ट में बहन, भाई का जूता पहन कर स्कूल जाती है और सात साल की वह लड़की छुट्टी होते ही घर के लिए दौड़ लगाती है, ताकि भाई वही जूता पहन स्कूल जा सके। बावजूद इसके भाई रोज स्कूल में लेट होता, मार खाता, लेकिन न तो बहन से शिकायत करता, न ही पिता से अपनी जरूरत बताता। उसे अहसास है ऐसा करने पर बहन और पिता को तकलीफ होगी। एक दिन बहन एक बच्ची के पांव में अपनी चप्पल देख लेती है। वह उसका पीछा कर उसके घर तक पहुंच जाती है और दूसरे दिन अपने भाई को लेकर जाती है, इस आक्रामकता के साथ कि आज उससे चप्पल छीन ही लेना है। दोनों छिप कर उसके बाहर निकलने की प्रतीक्षा करते हैं। लेकिन, जब वह अपने अंधे पिता के कंधे पर हाथ रखे छोटे से खोमचे में कुछ सामान साथ लेकर फेरी के लिए निकल रही होती है, तो दोनों भाई बहन किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। एक दूसरे के चेहरे को देखते दोनों वापस लौट जाते हैं।
माजिद माजिदी की एक पुरानी फिल्म ‘चिल्ड्रन ऑफ हेवन’ की यह आरम्भिक कथा है। इन बच्चों की संवेदना समझने के लिए किस भाषा की जरूरत है? बच्चों का स्वाभाविक विकास उन्हें आसपास के प्रति अधिक संवेदनशील और अधिक ईमानदार बनाता है। यही सिनेमा है, जिसकी अपनी एक अलग समृद्ध संप्रेष्य भाषा है, जिसे हमारे शब्द और लिपि की आवश्यकता नहीं। सत्यजीत रे ने किसी बातचीत में कहा था,यदि वे हिंदी जानते तो ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और भी बेहतर बन सकती थी। सत्यजीत रे मानते होंगे, ‘सद्गतिÓ में जिस तरह वे प्रेमचंद की आत्मा में प्रवेश करते हैं, कौन कह सकता है कि उन्हें हिंदी जानने समझने की जरूरत थी। ‘पथेर पांचालीÓ में वे सुदूर बंगाल के किसी गांव के किसी विपन्न ब्राह्मण की स्थिति चित्रित करते हैं और पूरी दुनिया उसके दर्द को महसूस कर रो देती है। ऑस्कर उनके घर तक आता है। बीते वर्ष इंडियन पैनोरमा के उद्घाटन फिल्म के रूप में उत्तरपूर्व की अनजान सी भाषा दिमिसा में बनी ‘सेमखोर’ दिखाई जाती है और विश्व के सिनेमा प्रेमी दिमासा जनजाति की लोकरीतियों और उनकी समस्याओं से रू- ब-रू होते हैं।
वास्तव में सिनेमा तो तब भी था जब सिनेमा के पास शब्द ही नहीं थे।’राजा हरिश्चंद्र’ किस भाषा की फिल्म थी? ‘पुष्पक’ जैसे प्रयोग भी तो हुए हैं सिनेमा में, इसीलिए आज जब सिनेमा के लोगों द्वारा सिनेमा और भाषा को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखने की कोशिश हो रही तो आश्चर्य होता है। महेश बाबू जब कहते हैं कि बालिवुड उन्हें अफोर्ड नहीं कर सकता, वे अपने सपने को सच होते देख बहुत संतुष्ट हैं कि तेलुगु सिनेमा आगे बढ़ रहा है, तो इसमें गलत क्या है, इसमें हिंदी भाषा पर सवाल कहां? किच्चा सुदीप जब कहते हैं कि पैन इंडियन सिनेमा तो कन्नड़ में बन रहा है, तो गलत नहीं कहते, अपने आपको पैन इंडियन बनाने पर उन्होंने मेहनत की है। लेकिन, जब हिंदी सिनेमा की हालिया असफलता को किच्चा हिंदी से जोड़ कर देखते हैं, तो बात गले नहीं उतरती। हिंदी फिल्मों की विफलता से न तो हिंदी कमतर हो जाती है, न ही दक्षिण भारतीय फिल्मों की सफलता से तेलुगु -कन्नड़ महान।

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