होसबाले ने आर्थिक असमानता पर भी चिंता जाहिर की। उनका कहना था कि एक फीसदी लोगों के पास देश की 20 फीसदी आय का हिस्सा है, जबकि 50 फीसदी आबादी के पास आय का 13 फीसदी हिस्सा ही आता है। सवाल यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि यह बात होसबाले ने कही। अहम यह है कि तमाम दावों के बावजूद देश में ऐसे हालात हैं। भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन, क्या संसाधन सभी लोगों तक समान रूप से पहुंच पा रहे हैं? अगर नहीं तो क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए? चंद उद्योगपतियों की पूंजी साल भर में दोगुनी हो जाए और देश की बड़ी आबादी भोजन, पानी और दूसरी सामान्य सुविधाओं के लिए संघर्ष करती रहे, यह ठीक नहीं। हकीकत तो यह है कि वित्त, उद्योग और श्रम मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्टों के आधार पर देश की प्रगति का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। ‘मेक इन इंडिया’ जैसे अभियान इसीलिए शुरू किए गए थे, ताकि भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन मिल सके। किसानों को उपज के उचित दाम मिलने का मुद्दा हो या उनकी उपज के लिए प्रसंस्करण इकाइयां लगाने की बात हो, सरकारी वादों के मुताबिक जितना काम हुआ है वह ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसे ही है। किसानों को अपनी उपज मंडी तक पहुंचाने और उचित दाम पाने के लिए आज भी पहले जैसी ही जद्दोजहद करनी पड़ रही है। कहीं ज्यादा तो कहीं कम।
संघ और होसबाले देश के आर्थिक हालात और यहां के आम आदमी की परेशानी समझ रहे हैं। शायद इसीलिए उन्होंने गरीबी और बेरोजगारी की तुलना राक्षस से करते हुए इनका वध करने की अपील की। दशहरा पर्व पर बुराइयों का वध करने की परंपरा है। गरीबी और बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकारें कुछ नए कदम उठाएं, तो देश की जनता को राहत मिल सकती है।