वैसे तो उम्मीद भी कम ही थी कि संसद का मानसून सत्र शांति से चल पाएगा। लेकिन ये आशंका भी नहीं थी कि विपक्षी सांसद देश के नवनियुक्त मंत्रियों का परिचय भी नहीं होने देंगे। हंगामा और टकराव पहले भी होता आया है, आगे भी होता रहेगा। लेकिन शोकाभिव्यक्ति और नवनियुक्त मंत्रियों के परिचय की औपचारिकता निभाने के दौरान सदन में शांति रहती आई है। सोमवार को संसद में जो हुआ वह अप्रत्याशित नहीं था, लेकिन आश्चर्यजनक जरूर था।
संसद में विपक्ष को अपनी आवाज उठाने का हक है। हंगामे का हक भी है और बायकॉट का भी। लेकिन नए मंत्रियों का परिचय नहीं होना क्या विपक्ष की जीत मान लिया जाए। संसद में कानून बहुमत से बनते आए हैं। जिस दल या गठबंधन का बहुमत होता है वह विधेयक पारित कराता है। विधेयकों का विरोध भी होता है। संसद में भी और सड़कपर भी। यहीं लोकतंत्र की विशेषता है। बहुमत का सम्मान होना चाहिए तो विपक्ष की आवाज को भी सुना जाना चाहिए।
आश्चर्य और अफसोस की बात है कि बीते दो दशकों में राजनीतिक सौहार्द की पुरानी परिभाषाएं ध्वस्त होती दिख रही हैं। अपने-अपने हिसाब से लोकतंत्र की नई परिभाषाएं गढ़ी जाने लगी हैं। संसद में दो पाले खिंच गए लगते हैं। बीच का रास्ता निकालने वाले सांसदों का अकाल नजर आने लगा है। मुद्दा कोई भी हो, ‘आम सहमतिÓ जैसा शब्द तो नदारद ही होता जा रहा है। सत्ता पक्ष का मतलब सिर्फ सरकार चलाना नहीं होना चाहिए और विपक्ष का मतलब सिर्फ विरोध करना नहीं। विपक्ष कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़ा है। लेकिन राज्यसभा में कृषि विधेयक पर भाजपा का साथ किस-किसने दिया, छिपा नहीं है। टकराव की ये राजनीति देश को कहां ले जाएगी, कोई नहीं जानता। राष्ट्रीय मुद्दों पर भी एक-दूसरे को नीचा दिखाने की खतरनाक प्रवृत्ति पर रोक लगाने की जरूरत है। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ जीत और हार ही नहीं होता।