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संविधान सभा की कार्यवाही फैसले का आधार

सुप्रीम कोर्ट के हाल ही आए फैसले के चलते इन दिनों चुनाव आयोग चर्चा के केंद्र में है। कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर फैसला दिया था। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान सभा की कार्यवाहियों के अध्ययन के आधार पर आया है।

Mar 23, 2023 / 10:12 pm

Patrika Desk

संविधान सभा की कार्यवाही फैसले का आधार

संविधान सभा की कार्यवाही फैसले का आधार


आशुतोष कुमार
प्रोफेसर, राजनीति
विज्ञान विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़
पिछले दिनों सार्वजनिक संस्थानों और उनसे जुड़ी प्रणालियां अधिक सुर्खियों में रहीं। ऐसा इसलिए कि इन संस्थानों से जुड़ी चिंता ज्यादा है। भारतीय निर्वाचन आयोग(ईसीआइ) ऐसा ही संस्थान है, जिसका महत्त्व देश के लोकतंत्र की सफलता से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के हाल ही आए फैसले के चलते इन दिनों चुनाव आयोग चर्चा के केंद्र में है। कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर फैसला दिया था। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान सभा की कार्यवाहियों के अध्ययन के आधार पर आया है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में ईसीआइ के गठन का उल्लेख मिलता है, जो एक स्थाई संवैधानिक संस्था है। इस अनुच्छेद के प्रावधान 1 के अनुसार चुनाव आयोग का कार्य मतदाता सूची तैयार करने, उसकी निगरानी व नियंत्रण से लेकर संसदीय चुनाव, राज्य विधानसभा चुनावों और राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनावों का संचालन है। धारा 2 के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईंसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति संसदीय कानूनी प्रावधानों के तहत राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। ईसीआइ व इसके सदस्यों का दर्जा और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए धारा 5 में कहा गया है कि सीईसी को उसके पद से नहीं हटाया जा सकता। ऐसा केवल तभी हो सकता है, जबकि वही प्रक्रिया व आधार अपनाए जाएं, जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के लिए लागू होते हैं। सीइसी की नियुक्ति के बाद सेवा शर्तों में बदलाव नहीं आना चाहिए, जो उसके लिए प्रतिकूल हों। ईसीआइ 25 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया। संवैधानिक प्रारूप की व्यापक प्रकृति के चलते इसे न केवल सुदृढ़ आधार मिला, बल्कि बदलती परिस्थितियों और नई चुनौतियों के मद्देनजर अपने आदेश की व्याख्या करने और प्रभावी ढंग से लागू करने का लचीलापन मिला।
जस्टिस के. एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ का उक्त फैसला कई जनहित याचिकाओं पर आया है। संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय दिया कि एक समिति, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता या लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता व भारत के प्रधान न्यायाधीश शामिल हों, उसे राष्ट्रपति के पास मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सिफारिशें भेजनी चाहिए। कोर्ट ने संविधान सभा की चिंताओं का संदर्भ देते हुए कहा कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिए। फैसले में हालांकि याचिकाकर्ता की यह मांग नहीं मानी गई कि चुनाव आयुक्तों को भी मुख्य चुनाव आयुक्त के समान ही कार्यकाल की सुरक्षा मिले। यहां तक कि कोर्ट ने भी दोहराया है कि अन्य सभी लिहाज में सीईसी व इसी के बीच समानता है। 1995 के टी.एन शेषन मामले में चुनाव आयुक्तों को हटाने के तरीकों को सही बताते हुए कोर्ट ने कहा था कि सीईसी को हटाने संबंधी सिफारिश का आधार बोधगम्य व मजबूत होना चाहिए। इससे चुनाव आयोग का कुशल संचालन हो सकेगा। पीठ ने कहा कि सीईसी को यह विशेषाधिकार इसलिए मिला, ताकि चुनाव आयोग राजनीतिक या कार्यकारी आकाओं की दया पर निर्भर न रहे। वित्तीय सहायता के मुद्दे पर, फैसले में केंद्र सरकार से केवल इतनी अपील की गई है कि एक स्थाई सचिवालय बनाया जाए, जो चुनाव आयोग को उसके अपने अधिकारी व स्टाफ दे, ताकि वह प्रतिनियुक्ति स्टाफ पर निर्भर न रहे। साथ ही सरकार से कहा गया है कि ऐसा कानून लाया जाए कि आयोग का खर्च भारत के समेकित कोष से उठाया जाए। इस प्रकार कोर्ट का फैसला केवल सीईसी व ईसी की नियुक्ति को लेकर है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह संसद द्वारा पारित कानून के अधीन होगा। यानी यह केवल कल्पना ही है कि नया कानून कॉलेजियम व्यवस्था का उल्लंघन करेगा। कॉलेजियम फैसले को इन आधारों पर व्यापक स्वीकृति मिली। पहला, इसे अनुच्छेद 324 में वर्णित संवैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए। दूसरा,सीईसी व इसी का चयन नैतिक आधार बढ़ाने वाला व संस्था की निष्पक्षता में लोगों की धारणा सुधारने वाला होना चाहिए। तीसरा, यह चुनाव आयोग के सदस्यों को केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के दबाव से मुक्त रखेगा।
हालांकि कुछ आपत्तियां भी हो सकती हैं। पहली,चूंकि सीजेआइ इस समिति के सदस्य हैं, तो उनके द्वारा नियुक्ति की सिफारिश पर सवाल उठेंगे, क्योंकि यह कार्यपालिका के अधीन माना जाता है। दूसरी, यदि किसी ईसीआइ सदस्य का आचरण जांच के दायरे में आता है, तो यह सीजेआइ को विचलित करेगा, क्योंकि मामला उच्चतम न्यायालय में जाएगा। तीसरी, फैसले से मौजूदा व्यवस्था को दोषपूर्ण बताना और ऐसे पर्यवेक्षण तैयार करना जो सरकारों द्वारा चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति पर सवाल उठाए। चौथी, बहस का विषय यह है कि लोकपाल या सीबीआइ निदेशक की नियुक्ति में जो कॉलेजियम व्यवस्था लागू है, क्या उससे इन संस्थाओं को आलोचनाओं का सामना नहीं करना पड़ता। पांचवीं, अब यह मांग उठ सकती है कि सीजेआइ को अन्य संस्थानों जैसे प्रत्यर्पण निदेशालय या यूपीएससी जैसी संस्थाओं की चयन प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए। छठी, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज करके न्यायिक स्वतंत्रता के बहाने जन प्रतिनिधियों और अधिकारियों को इससे दूर रखा, लेकिन अब वह स्वयं चयन प्रक्रिया में शामिल होने को तैयार है।

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