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‘भारत का संविधान पवित्र ग्रंथ है’ – जस्टिस रोहिंटन नरीमन

– Justice Rohinton Nariman: 7 साल के कार्यकाल में 13565 केस सुने, यहां उन कुछ मामलों का जिक्र कर रहे हैं जो याद रखे जाएंगे।

नई दिल्लीAug 13, 2021 / 10:52 am

Patrika Desk

Justice Rohinton Nariman

Justice Rohinton Nariman

जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन Justice Rohinton Nariman 7 जुलाई 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश Supreme Court Judge के रूप में नियुक्त किए गए थे। वह सुप्रीम कोर्ट बार के ऐसे चौथे वरिष्ठ वकील हैं जिन्हें जज के रूप में पदोन्नत किया गया। हाल ही में जस्टिस नरीमन 8 राजनीतिक दलों पर 1 से 5 लाख रुपए तक का जुर्माना लगा कर चर्चा में रहे। इससे कुछ दिन पहले उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा की अनुमति पर स्वत: संज्ञान लिया। केवल ऐसे कुछ फैसले ही जस्टिस नरीमन का परिचय नहीं हैं… आइये जानते हैं कुछ अन्य फैसलों के बारे में ।

किसी मामले में विचार अभिव्यक्ति कुछ लोगों को व्यथित कर सकती है
श्रेया सिंघल फैसला, 2015 – आइटी एक्ट की धारा 66ए रद्द की
‘स्पष्टत: किसी मामले में की गई एक विचार अभिव्यक्ति कुछ लोगों को व्यथित कर सकती है, असहज कर सकती है या फिर कुछ को पूरी तरह अप्रिय लग सकती है।… धारा 66 (ए) का दायरा इतना व्यापक है कि वस्तुत: किसी भी विषय पर कोई भी विचार इससे अछूता नहीं रहेगा। यदि इसे संवैधानिकता की कसौटी पर परखा जाए तो मुक्त अभिव्यक्ति पर इसके प्रभाव निश्चित तौर पर होंगे।’

मूलभूत अधिकार चुनाव नतीजों पर निर्भर नहीं
नवतेज सिंह जौहर फैसला – आइपीसी की धारा 377 को रद्द किया
वयस्कों के बीच समलैंगिकता को अपराधीकरण से बाहर करने के इस फैसले में कहा गया – ‘यह मूलभूत अधिकार चुनाव परिणामों पर निर्भर नहीं करते। और बहुमत की सरकार सामाजिक नैतिकता के नाम पर रूढि़वाद को बढ़ावा नहीं दे सकती। मूलभूत अधिकार का पाठ संविधान का ध्रुवतारा है। संवैधानिक नैतिकता के विचार विशेष पर अलग-अलग सरकारों की अलग-अलग राय है।’

बात तार्किकता के सूत्र की-
शायरा बानो मामला – तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया
‘मूलभूत अधिकार का पूरा अध्याय तार्किकता के सूत्र में पिरोया हुआ है। जो बात साफ तौर पर मनमानीपूर्ण है वह तर्कहीन है और कानून के विरुद्ध होने के चलते अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना जाएगा।’

आइपीसी की धारा 497 महिलाओं को नीचा दिखाती है
जोसेफ शाइन मामला – व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर किया
‘एक ऐसा कानूनी प्रावधान जिसका ताल्लुक उस अतीत से है जो एक महिला की स्थिति को नीचा या दोयम दिखाता है। यह स्पष्ट तौर पर आधुनिक संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करता है और इसे इस आधार पर भी समाप्त किया जाना चाहिए।’

आइपीसी की धारा 377 असंगत व सनक भरी
नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार मामले में
‘आधुनिक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों और कानूनों को देखते हुए समलैंगिक और ट्रांसजेंडर ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें मानसिक तौर पर विक्षिप्त माना जाए और इसलिए उन्हें सजा नहीं दी जा सकती। यह धारा एक ऐसा प्रावधान है जो कि असंगत है। साथ ही ऐसे लोगों को सजा देना जिसमें कि उम्रकैद की सजा भी शामिल हो, न केवल अति है बल्कि असंगत भी।’

अनुच्छेद-21 के व्यक्तिगत गरिमा के पहलू को लेकर
जोसेफ शाइन बनाम भारत सरकार मामले में
‘व्यक्ति की गरिमा, जिसके बारे में भारत के संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है, संविधान के अनुच्छेद 21 का एक पहलू है।’

प्रवेश पर रोक खारिज की

सबरीमला मामला
‘एक ही धार्मिक विश्वास के भीतर विभिन्न समूहों द्वारा धार्मिक अधिकारों के प्रयोग के बीच संतुलन, जिसे अनुच्छेद 25 में पाया जाता है, को मामले दर मामले के आधार पर निर्धारित किया जाना है।’ इसके तहत 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध को हटाया गया।

प्रत्येक व्यक्ति याद रखे कि भारत का संविधान ‘पवित्र ग्रंथ’ है
सबरीमला असंतोष समीक्षा
‘प्रत्येक व्यक्ति को स्मरण रहे कि भारतीय संविधान ‘पवित्र ग्रंथ’ है, जो भारत के समस्त नागरिकों को एक साथ लाता है ताकि वे बड़े लक्ष्य साध सकें, जो इस ‘मैग्ना कार्टा’ या ‘ग्रेट चार्टर ऑफ इंडिया’ द्वारा निर्धारित किए गए हैं।’

राजनीति के अपराधीकरण पर-
‘इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में अपराधीकरण का खतरा दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। साथ ही, कोई भी इस बात से भी इनकार नहीं कर सकता कि राजनीतिक व्यवस्था की शुद्धता बनाए रखने के लिए, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों और राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण में शामिल लोगों को कानून बनाने वाले होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।’

जीवन का अधिकार सर्वोपरि, धार्मिक भावनाएं उसके बाद-
यूपी सरकार के कांवड़ यात्रा को अनुमति पर स्वत: संज्ञान
‘भारत के नागरिकों का स्वास्थ्य और उनका ‘जीवन’ का अधिकार सर्वोपरि है। अन्य सभी भावनाएं, भले ही धार्मिक हों, इस सबसे अधिक बुनियादी मौलिक अधिकार के अधीन हैं।’

आइबीसी के तहत फ्लैट के लिए दिया गया एडवांस वित्तीय ऋण-
भारतीय दिवालियापन और शोधन अक्षमता कोड (आइबीसी)
‘आवास खरीदने वालों का पक्ष रखते हुए रियल एस्टेट डवलपर को फ्लैट बुकिंग के लिए दिया गया एडवांस पैसा उसके ‘अस्थायी उपयोग’ की श्रेणी में माना जाएगा, जिसकी एवज में खरीददार को मनी बैक के तौर पर ‘उसके समकक्ष’ ही कुछ दिया जाएगा।’

मानो ‘आपराधिक भेडिय़ों’ के कपड़ों में हो ‘सिविल भेड़’
धारा 138, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट
‘धारा 138 एनआइ एक्ट ‘आपराधिक भेडिय़े’ के लिबास में ‘सिविल भेड़’ है। चैक बाउंस के मामलों में पीडि़त के हितों की रक्षा होनी चाहिए। पीडि़त अकेला ही अदालत जाता है। इसका मकसद गलती करने वाले को सजा देना नहीं, बल्कि पीडि़त को क्षतिपूर्ति है।’

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