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बैंकों का इलाज

Published: Jul 10, 2018 10:40:00 am

बैंकों की कमियों को ईमानदारी से स्वीकार करें। बैंक भी ऐसा करें और सरकार भी करे। तभी हम यथोचित सुधार की दिशा में बढ़ पाएंगे।

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विगत पांच वर्ष में अपने देश में बैंक घोटालों में २० प्रतिशत की वृद्धि यह बताने के लिए पर्याप्त है कि बैंकों की कामकाजी हालत दयनीय व निंदनीय है। बैंकों की पूरी कमाई और अच्छाई को ये वित्तीय घोटाले निगल जाने के लिए पर्याप्त हैं। ध्यान दीजिए, ये घोटाले ऐसे हैं, जिन्हें स्वयं बैंकों ने स्वीकार किया है, घोटालों का सच्चा आंकड़ा तो और भी शर्मनाक होगा। वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में गठित हुई संसद की वित्तीय मामलों की समिति के सामने बैंकों ने यह भी माना है कि बैंकों में फर्जीवाड़े के कारण उनका एनपीए ९ लाख करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है। बैंकों की जो वर्तमान ढिलाई दिखती है, उसके कारण एनपीए की भारी-भरकम राशि का लौट आना उतना ही कठिन है, जितना विदेश भाग गए विजय माल्या और नीरव मोदी का लौटना।
बैंकों में लापरवाही व मनमानी की जितनी भत्र्सना की जाए कम है। बैंक में तो रत्ती भर भी वित्तीय बेईमानी नहीं होनी चाहिए, लेकिन कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं, जिसमें बैंक जन-लोक धन के संरक्षक नहीं, बल्कि भक्षक साबित हुए हैं। बैंकों का जोर तो केवल आम गरीब, मध्यवर्गीय, कानून की पालना करने वाले भारतीयों पर ही चलता है। और यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि बैंकों में वित्तीय घोटाले करने में देश के गरीबों, किसानों, नौकरीपेशा लोगों का कोई योगदान नहीं है।
बड़े पैमाने पर वित्तीय घोटालों के बावजूद बैंकों का हास्यास्पद बहाना देखिए, वे कर्मचारियों की कमी, काम के बोझ, तकनीकी प्रणाली के अपग्रेड न होने को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। तो क्या इन्हीं कमियों की वजह से नीरव मोदी ७००० करोड़ रुपए लेकर देश से निकल भागा? संसदीय समिति की रिपोर्ट के बाद सरकार को जागना चाहिए। सच है, भारत में कोई ठोस बैंक नीति नहीं है। बैंक आम लोगों का पैसा जमा रख लेते हैं, तरह-तरह की वसूली करते हैं, लेकिन पैसे लौटाने की गारंटी नहीं देते। एक तरफ सरकार बैंकों का विलय करवा रही है, तो दूसरी ओर, न जाने कितने देशी-विदेशी बैंक खुलने की कतार में हैं? देश में भले ही दस ही बैंक हों, लेकिन जनता का धन तो सुरक्षित रहे, वहां कोई घोटाला तो न हो।
पहले नेताओं के इशारे पर गलत कर्ज बंटते थे और अब बैंक के अधिकारी भी बांटने लगे हैं। सबसे निराशाजनक रिजर्व बैंक गवर्नर उर्जित पटेल का बयान है कि हमारे पास पर्याप्त अधिकार नहीं हैं और बैंक में घोटालों को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता। एक उदाहरण देखिए, चीनी बैंक आईसीबीसी को मुंबई ब्रांच में केवल ४ चीनी कर्मचारी रखने का अधिकार है, लेकिन वहां १० से ज्यादा चीनी काम कर रहे हैं। ऐसा कैसे हो गया? अब यही बैंक दिल्ली में ब्रांच खोलना चाहता है।
न देशी बैंकों पर शिकंजा है, न विदेशी बैंक सुन रहे हैं, तो बैंकिंग सेक्टर में खतरे की घंटी बज जानी चाहिए। क्या सरकार ये घोषणा कर सकती है कि बैंकों में लोगों के धन के साथ जो भी खिलवाड़ होगा, उसकी पूर्ति वह करेगी। वह अगर ये घोषणा नहीं कर सकती, तो वह बैंक नीति में तत्काल सुधार कर शिकंजा कसे। बेशक, सैकड़ों बैंकों की लाखों शाखाओं को उतना ही फैलने दिया जाए, जितनी बड़ी सरकार की चादर है।

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