scriptठीक नहीं भाषा के सवाल पर विवाद | Controversy over the language question is not right | Patrika News

ठीक नहीं भाषा के सवाल पर विवाद

locationनई दिल्लीPublished: Aug 04, 2020 02:17:39 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

निश्चित ही भारत में प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा होने से देश की बौद्धिक संपदा समृद्ध ही होगी । इस पर आपत्ति जताने वालों को एक बार भाषा विज्ञानियों की बातों पर गौर करना चाहिए ।
 

new education policy

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-सुरेंद्रसिंह शेखावत, सामाजिक चिंतक व टिप्पणीकार

भाषा के सवाल पर नई शिक्षा नीति ने वर्तमान शिक्षा के ढांचे में अमूलचूल परिवर्तन की बात कही है जिस पर इन दिनों हंगामा मचा हुआ है । नई शिक्षा नीति में भाषा को लेकर कुछ खास प्रावधान किए गए है जिनमें शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के उपयोग की सिफारिश की गई है इसमें मातृभाषा , स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा का विकल्प दिया गया है । भाषा नीति का मूल आधार त्रिभाषा फार्मूला है जिसके अनुसार स्कूली विद्यार्थी को तीन भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य रूप से होना चाहिए । इसके साथ ही संस्कृत , तमिल , तेलगु, कन्नड़ , फ़ारसी, प्राकृत और पाली जैसी शास्त्रीय भाषाओं के अध्ययन पर विशेष जोर देने की बात की गई है ।
नई नीति में भाषा को लेकर किए गए बदलावों के बाद शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की वकालत करने वाला एक तबका जिसमें देश भर में कुकरमुत्ते की तरह फैले अंग्रेजी माध्यम स्कूल भी है , शिक्षा नीति के उस प्रावधान का विरोध कर रहे है जिसमें प्राथमिक शिक्षा के लिए पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा में कराने की बात कही गई है ।
यद्यपि दुनियाभर के शिक्षाविद, और विद्वान यह मानते है कि बच्चे का सर्वाधिक प्रारम्भिक विकास और सीखने की प्रवृत्ति उसी भाषा में बढ़ती है जो उसकी घर में बोली जाने वाली भाषा होती है अन्यथा उसका अधिकतर समय मातृभाषा और शिक्षण की भाषा के शब्दों के अंतर को समझने में ही गुजर जाता है ।
इस बारे में महात्मा गांधी का मानना था कि मातृभाषा का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती। उनके अनुसार, “गाय का दूध भी मां का दूध नहीं हो सकता।” गांधी लिखते है कि,
“मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं , वे आत्महत्या ही करते हैं । यह उन्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित करती है । वह उनकी सारी मौलिकता का नाश कर देती है ।उनका विकास रुक जाता है । इसलिए मैं इस चीज को पहले दरजे का राष्ट्रीय संकट मानता हूं ।”
गांधी मानते है कि “मातृभाषा में शिक्षा हो तो भारत में नकलची नमूने नहीं,करोड़ों वैज्ञानिक और दार्शनिक पैदा होंगे । हम जगदीशचन्द्र बसु और डॉ. प्रफुल्ल चंद्र राय को देखकर मोहांध हो जाते हैं। मुझे विश्वास है कि यदि हमने 50 वर्षों से मातृ-भाषा द्वारा शिक्षा पाई होती तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देखकर हमें अचंभा न होता।” बापू आगे कहते है ,”आज भारत में हम रट-पिट कर औसत-बुद्धि वाले इंजीनियर और डॉक्टर तो पैदा कर रहे हैं, लेकिन खोजकर्ता वैज्ञानिक, मौलिक चिंतक और दार्शनिक नहीं पैदा कर पा रहे हैं । भारत की ज्यादातर आबादी नवीनतम ज्ञान-विज्ञान तक पहुंच से वंचित है। जिसकी मौलिकता बची हुई है, उसके आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया गया है।”
महात्मा गांधी का मानना था कि शिक्षा की भाषा के मामले में भारत को जापान से सीखना चाहिए। वे लिखते है , ‘जापान ने मातृ-भाषा में शिक्षा के द्वारा जन-जागृति की है. इसलिए उनके हर काम में नयापन दिखाई देता है. वे शिक्षकों के भी शिक्षक बन गए हैं. उन्होंने (गैर-यूरोपीय देशों के लोगों को दी गई ) सोख्ता कागज की उपमा को गलत साबित कर दिया है। मातृभाषा में शिक्षा के कारण जापान के जन-जीवन में हिलोरें उठ रही हैं और दुनिया जापानियों का काम अचरज भरी आंखों से देख रही है।
गांधी ही नहीं साहित्य में नोबल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर और प्रसिद्ध शिक्षाविद गिजुभाई भी मातृभाषा में ही प्रारम्भिक शिक्षा की वकालत करते है ।
दुनिया के समृद्ध देशों में शुरुआती पढ़ाई का माध्यम स्थानीय भाषा ही है । जर्मनी में जर्मन, जापान में जापानी और चाइना में चीनी भाषा में ही पढ़ाई शुरू होती है अंग्रेजी में नहीं ।इसके बावजूद इन देशों ने दुनिया को बड़ी वैज्ञानिक खोज , ज्ञान विज्ञान और दर्शन का मार्ग दिखाया है ।
दरअसल हमारे यहां 1835 में इंडियन एज्युकेशन बिल के माध्यम से मैकाले द्वारा तैयार की गई पॉलिसी ***** ए मिनिट ऑन इंडियन एज्युकेशन” लागू की गई थी जिसका उद्देश्य अंग्रेजी राज के लिए बाबू तैयार करना था । इसके लागू होने से भारत में पहले से चल रहे अरबी मदरसों और संस्कृत के हिन्दू विद्यालयोंकी बजाय अंग्रेजी की पढ़ाई वाले स्कूल खोले गए । मैकाले की नीति पूरी तरह से औपनिवेशिक शासन के सुचारू संचालन के लिए सस्ते कर्मचारी तैयार करने की थी , उन्हें भारत में वैज्ञानिक और चिंतक तैयार नहीं करने थे ।
अंग्रेजी के मोहपाश में जकड़े हमारे एक वर्ग ने अंग्रेजी भाषा को ही ज्ञान का आधार मान लिया है । हालांकि नई नीति अंग्रेजी को सीखने पर कोई आपत्ति नहीं करती । एक भाषा के तौर पर , विषय के रूप में अंग्रेजी को सीखने पर कोई रोक नहीं है, हां अनावश्यक रूप से भारतीय बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी के इस्तेमाल पर जरूर रोक लगाई गई है । इस बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सचिव अमित खरे की यह बात गौर करने लायक गया कि ,”अंग्रेजी पढ़े क्लर्क बनने से अच्छा है कि हिंदी, तमिल या तेलगु पढ़े हुए स्वरोजगारी बने।”
नई शिक्षा नीति के भाषा सम्बन्धी फैसले पर आपत्ति जताने वाले लोगों को एक बार विश्व के विद्वान शिक्षाविदों और भाषा विज्ञानियों की बातों पर गौर करना चाहिए । इस बारे में हुए शोधपत्रों को पढ़ना चाहिए और दुनिया की 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के शिक्षा माध्यम पर गौर करना चाहिए जहां अंग्रेजी की बनिस्पत स्थानीय भाषा में पढ़ाई कराई जाती है ।
निश्चित ही नई शिक्षा नीति के सुझावों के अनुरूप भारत में प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा होने से देश की बौद्धिक संपदा समृद्ध ही होगी ।
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