पहला: शर्तरहित वित्तीय प्रवाह का यही सबसे उपयुक्त समय है इसे समझा जाना चाहिए। यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) की परिभाषा के अनुसार, जलवायु वित्तपोषण ‘स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय वित्तपोषण है – जो सार्वजनिक, निजी व वैकल्पिक स्रोतों से जुटाया जाता है, और जलवायु परिवर्तन के समाधान के लिए जरूरी शमन व अनुकूलन कार्यों को इससे मदद मिलती है।’ सवाल आता है कि किसे जलवायु वित्तपोषण की जरूरत है और किसे इसका भुगतान करना चाहिए? सरल जवाब है कि विकासशील देशों को इसकी आवश्यकता है और विकसित देशों को इसका भुगतान करना चाहिए। कारण यह कि विकासशील देशों को अपनी विकास प्राथमिकताओं को जलवायु शमन और अनुकूलन लक्ष्यों के साथ संतुलित करने की चुनौती का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उनके पास विकास प्राथमिकताएं छोडक़र जलवायु कार्रवाई के लिए धन आवंटित करने के लिए राजकोषीय छूट बहुत सीमित है। इसके अलावा, कम-कार्बन उत्सर्जन वाली परियोजनाओं में निवेश के लिए पूंजी की लागत अधिक है।
सीओपी-29 में न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड टारगेट-एनसीक्यूजी के लिए एक राशि निर्धारित की जानी चाहिए, जो कि २०१५ में अपनाया गया एक वित्तीय लक्ष्य है। विकासशील देशों, छोटे द्वीपीय राज्यों, शिक्षाविदों, थिंक टैंक और अन्य लोगों के दबाव ने एनसीक्यूजी पर चर्चा को मुख्यधारा में ला दिया है। एनसीक्यूजी राशि को 2025 से पहले अंतिम रूप दिया जाना है, जो 100 अरब अमरीकी डॉलर से कम नहीं होनी चाहिए। एनसीक्यूजी पर अहम निर्णय लेते हुए विकासशील देशों की पूरी अर्थव्यवस्था में जलवायु शमन, अनुकूलन और हानि व क्षति से जुड़ी जरूरतों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह वित्तपोषण गैर-वाणिज्यिक होना चाहिए, ऋण के बजाय अनुदान आधारित होना चाहिए, तथा मौजूदा सहायता को री-पैकेज नहीं किया जाना चाहिए। पिछले साल किए गए वस्तुस्थिति के पहले वैश्विक आकलन (ग्लोबल स्टॉकटेक) के अनुसार अभी हम ऐसा कर पाने के रास्ते पर नहीं हैं।
दूसरा: चूंकि विभिन्न राष्ट्रों को फरवरी 2025 तक राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को अपडेट करना है और सीओपी-29 उस डेडलाइन से पहले हो रहा है, इसलिए सीओपी-29 को मजबूत संदेश देना चाहिए कि सभी देश अपने-अपने एनडीसी को पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के अनुरूप बनाएं और उसे पेश करने में देरी न करें। एनडीसी का यह चरण सभी क्षेत्रों सहित अधिक समग्र, संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लक्ष्यों पर केंद्रित होना चाहिए, क्योंकि 2030 के लिए आगे बढऩे का रास्ता इसी से निर्धारित होगा। यही वह बिंदु है, जहां पर वैश्विक सहयोग और दबाव सर्वोपरि हो जाता है। इसके लिए सभी देशों को अपनी प्रतिबद्धताओं को बढ़ाना होगा और उन्हें पेरिस समझौतों के अनुरूप करना होगा।
तीसरा: संवर्धित एनडीसी के तहत 2030 तक अक्षय ऊर्जा क्षमताएं तीन गुना करने और ऊर्जा दक्षता में सुधार को दोगुना करने की पुरानी प्रतिबद्धता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। अक्षय ऊर्जा क्षमताओं में बढ़ोतरी के साथ जुड़ी है सौर व पवन ऊर्जा में समयबद्ध रुकावट (रात के समय सौर ऊर्जा की अनुपस्थिति व दिन भर हवा की बदलती दिशा एवं गति पर पवन ऊर्जा न मिलना) और मुख्य भार को जीवाश्म ईंधन की जगह अक्षय ऊर्जा पर स्थानांतरित करने की चिंता। यहीं पर विभिन्न देशों को ऊर्जा भंडारण समाधानों, लक्ष्यों व महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति शृंंखला के बारे में चर्चा करनी चाहिए। ऊर्जा भंडारण बढ़ाने व विकासशील देशों में ऊर्जा भंडारण की लागत घटाने के लिए सब्सिडी पर भी निर्णय हो। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में ऊर्जा भंडारण की लागत करीब दोगुनी है।
उम्मीद है कि यह सम्मेलन जलवायु वित्तपोषण के स्रोत व साधनों को अंतिम रूप दे पाएगा। हालांकि, नए ट्रंप प्रशासन के अंतर्गत इन उम्मीदों का भविष्य अनिश्चित है। यदि यह सीओपी इन तीन स्तंभों पर किसी नतीजे पर पहुंच सका तो भू-राजनीतिक तनावों, बिगड़े हुए रिश्तों और युद्धों से जूझ रही दुनिया में बातचीत, सहयोग और जलवायु कार्रवाई के मामले में अधिक प्रगति देखने को मिलेगी। इस तरह एक अंधेरी सुरंग के सिरे पर मौजूद प्रकाश की तरह यह सीओपी सभी को एक अधिक सतत और लचीले भविष्य की ओर ले जाने वाला साबित हो सकता है।