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सरकारों का झूठ

locationजयपुरPublished: Jul 06, 2021 04:35:15 pm

Submitted by:

Amit Vajpayee

दरअसल… मृत्यु तो अटल सत्य है, सरकारों का उस पर कोई जोर नहीं। लेकिन मृत्यु का कारण क्या है, यह बताना या छिपाना सरकारों के हाथ में है

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अमित वाजपेयी

सबकुछ हंसी-खुशी चल रहा था। दुनिया अपने ही रंग में थी। अचानक कोरोना नाम की महामारी इस कदर आई और तीव्रता से छाई कि दुनिया अस्त-व्यस्त हो गई। मौत मंडराने लगी। आम आदमी तो दूर, वैज्ञानिकों और सरकारों तक को संभलने-संभालने का मौका नहीं मिला। लेकिन अब तस्वीर काफी कुछ साफ है। वायरस क्या और कैसा है। इसके बाद ही तो सुरक्षा कवच के रूप में वैक्सीन तैयार की गई। इसके बावजूद हालात भयावह क्यों, क्या सरकारों के पास इसका कोई जवाब है? सालभर से अधिक समय हो गया, जानलेवा वायरस का एक रूप आकर चला गया और अब दूसरा तबाही मचा रहा है तो इस सालभर में सरकारों ने आखिर क्या किया? पता था कि दूसरी लहर आएगी, तो तैयारियां क्यों नहीं कर पाईं?
दरअसल… मृत्यु तो अटल सत्य है, सरकारों का उस पर कोई जोर नहीं। लेकिन मृत्यु का कारण क्या है, यह बताना या छिपाना सरकारों के हाथ में है।

बस वे इसी ‘अधिकार’ का उपयोग कर मृत्यु के कारण में ‘कोरोना’ लिखने से बचती रहीं। रोम जलता रहा और सरकारें नीरो बनी रहीं। राजस्थान हो या मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ हो या अन्य राज्य। ज्यादातर राज्यों की सरकार मनमर्जी के आंकड़े कागजों पर लिखकर जनता को गिनाती रहीं। पहली लहर के बाद कोरोना की दूसरी लहर में भी सरकारों का रवैया यही है। झूठे आंकड़ों के सहारे खड़ी हैं। इस इन्तजार में कि कोरोना शायद अपने आप चला जाएगा। यदि सरकारें फरेब नहीं कर रहीं, उनके आंकड़े सच्चे हैं तो गंगा में कहां से बहकर आए शव? सरकारी कागजों में जितनी मौतें बताई जा रही हैं, श्मशानों में उससे तिगुनी-चौगुनी चिताएं कैसे जल रही हैं? जब मौतों पर ही पर्दा डाला जा रहा है, तो संक्रमितों के सरकारी आंकड़ों पर भरोसा कोई कैसे करे?
सरकारों को चाहिए कि सच को स्वीकारें। क्योंकि कोरोना वायरस जितना घातक है, सरकारों का झूठ और आंकड़ों की बाजीगरी उससे ज्यादा जानलेवा है। पहली लहर में ही सच को स्वीकार लिया जाता तो सरकारों के पास सटीक आंकड़े होते। सटीक आकलन हो पाता। उसी के मुताबिक तैयारियां सुनिश्चित होतीं। तो इतने लोग न मरते। संक्रमण इतना न पसरता। बहुत कुछ बिगड़ चुका है लेकिन सरकारें अब भी चेतें तो आगे होने वाला बिगाड़ा रोका जा सकता है। क्योंकि वायरस की तीसरी लहर और ज्यादा खतरनाक होने की आशंका है, जिसकी पहुंच नाबालिगों तक भी होगी। सरकारें सचमुच संक्रमण को थामना और जानें बचाना चाहती हैं तो सच का सामना करें। मौतें हकीकत में जितनी हो रही हैं, उतनी ही दर्ज हों। संक्रमण जिस गति से और जितना फैल रहा है, उसकी तीव्रता आंकड़ों में भी दिखे। तब ही दिशा तय हो पाएगी कि आगे क्या करना है। किस गति से कितने इन्तजाम करने हैं।

घर में रहना कोरोना से बचाव का सबसे बड़ा उपाय है लेकिन क्या घोर संकट के इस समय में जनता के प्रतिनिधियों का घरों में दुबके रहना उचित है? फिर जनता को बचाएगा कौन? कालाबाजारी पर लगाम कौन लगाएगा? महामारी के बीच भी फलते-फूलते भ्रष्टाचार को कौन नियन्त्रित करेगा? जीवन रक्षक दवाओं की कीमतों को आमजन की पहुंच में बनाए रखना कौन तय करेगा? चुनाव खत्म होते ही पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढऩे लगीं, जनता पर ऐसी दोहरी मार के मुद्दे कौन उठाएगा? मारामारी के बीच गड़बड़ाते ऑक्सीजन और दवाओं के प्रबन्धन को कौन संभालेगा? जन प्रतिनिधियों के बीच कोरोना से बचना जरूरी है लेकिन जनता को बचाना भी उतना ही जरूरी है।
यह समय न आरोप-प्रत्यारोप का है, न राजनीति चमकाने का। झूठ बोलने का तो कतई नहीं। क्योंकि देश-दुनिया पर मंडराती मौत के लिए न कोई आम है और न खास। अमीर-गरीब का भी उसकी नजर में कोई भेद नहीं। उसकी नजर सिर्फ फेफड़ों पर है कि कैसे मौका मिले और फेफड़ों पर कब्जा कर श्वास नली बन्द कर दे। सरकारों की झूठ का संक्रमण इस वायरस को और उग्र कर रहा है, कम नहीं। सरकारें पहले अपने झूठ पर लगाम लगाएं, अगले ही पल से सुधार का रास्ता दिखने लगेगा।
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