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कोरोनाकाल व बच्चों की दुनिया

locationनई दिल्लीPublished: May 14, 2020 12:36:38 pm

Submitted by:

Prashant Jha

देश-दुनिया में कोराना विषाणु से मचे कोहराम से बच्चों के सुकोमल मन का प्रभावित होना लाजमी है। टीवी-अखबारों में कोरोना की करुण कहानियां बाल-मन को आहत कर रही है. ऐसी विषम परिस्थिति में बच्चों के आत्मविश्वास को बरकरार रखने के लिए उनको आत्मीयतापूर्ण सम्बलन प्रदान करने व सृजनात्मक गतिविधियों में व्यस्त रखने की दरकार है।

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कोरोना संकट ने बड़ों की जिंदगी जितनी बदली है उससे कहीं अधिक बड़े पैमाने पर बच्चों के जीवन को प्रभावित किया है। यह बात दीगर है कि बच्चों की इच्छाओं व चिंताओं को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। ऐसा पहली बार हुआ है कि बच्चे करीब दो माह से घरों में कैद-से हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई बंद है। खेल गतिविधियां ठप है। घूमने-फिरने व मौज मस्ती के रास्ते भी बंद प्रायः हैं।
देश-दुनिया में कोराना विषाणु से मचे कोहराम से बच्चों के सुकोमल मन का प्रभावित होना लाजमी है। टीवी-अखबारों में कोरोना से मौतों की करुण कहानियां बाल-मन को आहत कर रही है वहीं बीमारों के बढते आंकड़े व कोराना संकट की उपजी परिस्थितियों की दर्दनाक तस्वीरें उनमें भय व हताशा के भाव भर रही हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में बच्चों के आत्मविश्वास को बरकरार रखने के लिए उनको आत्मीयतापूर्ण सम्बलन प्रदान करने व सृजनात्मक गतिविधियों में व्यस्त रखने की दरकार है।
बोर्ड कक्षाओं में अध्ययनरत विद्यार्थियों की तो परीक्षाएं भी पूर्ण नहीं हो पाई है जिससे उनका तनाव में रहना स्वाभाविक है। महामारी के कारण अभी तक ठीक-ठीक निश्चित भी नहीं हो पाया है कि शेष रही परीक्षाएं कब आयोजित होंगी। बोर्ड कक्षाओं के अतिरिक्त अन्य कक्षाओं में अध्ययनरत विद्यार्थियों को बिना वार्षिक परीक्षा के आयोजन के उत्तीर्ण घोषित कर दिया गया है। मेधावी विद्यार्थियों के लिए यह स्थिति भी सुकून देने वाली तो कदापि नहीं है। वर्षपर्यंत अध्ययन करने के बाद बच्चे की सहज आकांक्षा होती है कि उसकी योग्यता के अनुरूप उसे श्रेणी अथवा अंक प्राप्त हां। कक्षा में अव्वल आने के लिए बच्चे आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं। यद्यपि इसमें किंचित भी संदेह नहीं है कि सामयिक परिस्थितियों में यह निर्णय बेहद जरूरी था।
मार्च के तीसरे सप्ताह से विद्यालयों में निरन्तर अवकाश चल रहा है। ऐसी स्थिति में बच्चों का स्कूल जाना व अपने संगी-साथियों से मिलना-जुलना बंद हो गया है। बच्चों के लिए अपने दोस्तों के साथ मुलाकात और वार्तालाप किसी टॉनिक से कम असरकारी नहीं होता। बच्चे अपने मन की बहुत-सी बातें केवल अपने दोस्तों के साथ ही साझा करते हैं। वे साथ बैठकर ठहाके लगाते हैं। इससे उनके भीतर का तनाव दूर हो जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है।
अवकाश के कारण विद्यालयों के खेल मैदान वीरान पड़े हैं वहीं स्पोर्ट्स स्टेडियम, कोचिंग एकेडमी आदि भी बेरौनक है। ग्रामीण क्षेत्रों के गली-मोहल्लों में भी बच्चों की धमाचौकड़ी दिखाई नहीं दे रही है। गांव से लेकर राष्ट्र व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक की खेल प्रतियोगिताएं आयोजित नहीं हो पा रही है। कहने की दरकार नहीं है कि खेलों का महत्व पढ़ाई से कहीं कमतर नहीं है। खेलों के माध्यम से बच्चे न केवल स्वस्थ रहते हैं बल्कि उनका मन भी प्रफुल्लित रहता है।
बच्चों में घूमने-फिरने के प्रति बहुत आकर्षण रहता है। लोकडाउन के बाद गांव से लेकर महानगरों तक के दर्शनीय पर्यटन स्थल सुनसान पड़े हैं। आवागमन के साधन बंद होने से फिलहाल देशाटन संभव भी नहीं है। गर्मी की छुट्टियों में अक्सर बच्चे अपने अभिभावकों के साथ घूमने जाते हैं मगर इस बार वे तमाम योजनाएं स्थगित हो चुकी हैं।
स्वस्थ मन के लिए तन का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है। अगर मन मुदित नहीं है तो बेहतर स्वास्थ्य की उम्मीद बेमानी है। लोकडाउन ने सम्पन्न वर्ग के बच्चों के लिए खाने-पीने के अवसर तो बढ़ाए है मगर आर्थिक दृष्टि से पिछड़े तबकों के बच्चों के घरों में सबसे बड़ी प्राथमिकता राशन की व्यवस्था करना है। ऐसे परिवेश के बच्चों की खाने की रुचियों की पूर्ति कर पाना अभिभावकों के लिए बहुत मुश्किल है।
इन दिनों राजकीय व निजी विद्यालयों ने डिजिटल लर्निंग के लिए कार्यक्रम शुरू किए हैं। इसके तहत बच्चे मोबाइल आदि के जरिए पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। इस कार्यक्रम की अपनी चुनौतियाँ व सीमाएं हैं। लोकडाउन में बच्चों का ऑन स्क्रीन टाइम बेशक बढ़ गया है। टेलीविजन पर कार्यक्रम देखने व मोबाइल पर गेम्स आदि खेलने में बच्चों का समय बीत रहा है। किशोरवय के बच्चे सोशल मीडिया पर खासा समय गुजार रहे हैं।
पिछले कुछ अरसे से घरों में किताबों का कोना गायब हो गया है। बच्चों के लिए पत्र-पत्रिकाएं वैसे भी गिनी चुनी हैं और जो हैं, उनकी पहुंच अत्यंत सीमित है। बाल साहित्य की स्तरीय व रोचक कृतियां आम तौर पर नन्हे हाथों तक नहीं पहुंच पाती। ऐसी स्थिति में बच्चों को पाठ्यक्रम से इतर सामग्री पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं हो रही है। यह मसला वस्तुतः पढ़ने की संस्कृति से जुड़ा हुआ है, जिस पर चौतरफा संकट मंडरा रहे हैं।
इस संकटकाल का बच्चों के लिहाज से सकारात्मक पक्ष भी है। परिवार के सभी सदस्यों की मौजूदगी से घर-आंगन गुलजार हो गए हैं जिससे बच्चों को सामुदायिक जीवन का आनंद मिल रहा है। पर्यावरण शुद्ध होने से वे स्वस्थ हवा में सांस ले रहे हैं। कोई चित्र बना रहा है तो कोई संगीत सुन रहा है। उनकी फरमाइश पर किचन में डिश बन रही है तो दादी नानी की कहानियों का दौर भी फिर से शुरू हो गया है।
यहां हमें उन बच्चों की चर्चा भी करनी चाहिए जिनके अभिभावक कोरोना वॉरियर्स हैं व मानवता की सेवा में अहर्निश व्यस्त रहने से बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे हैं। इसके साथ उन मजदूरों के बच्चों की पीड़ा को भी नहीं भूलना चाहिए जो रोजगार छिनने से दुखी हैं व नगरीय इलाकों से अपने गांव-घर वापसी के लिए संघर्षरत हैं।

यह केवल मुहावरे की भाषा नहीं बल्कि एक जीवंत सच्चाई है कि बच्चे ही देश-दुनिया का आने वाला कल है। कहना न होगा, भावी कल को सुंदर बनाने के लिए हमें बच्चों को तसल्ली से सुनना होगा, उनकी भावनाओं को समझना होगा व देश-दुनिया को बच्चों के अनुकूल बनाने के प्रति सावचेत होना होगा।
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