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कोरोना: जागा राष्ट्रीय कर्तव्य

locationनई दिल्लीPublished: Apr 16, 2020 07:54:49 pm

Submitted by:

Prashant Jha

कोरोना वैश्विक महामारी के इस माहौल में संविधान में दिए गए मूल कर्तव्य का हमें स्मरण करना चाहिए। यह समय है जब प्रत्येक नागरिक को अपने नागरिक कर्तव्य को जागृत कर एक-दूसरे का पूरक बनकर सामने आएं।
 

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प्रभात झा, (भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष)

25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण देते हुए डॉ. भीम राव अंबेडकर ने कहा कि “संविधान की सफलता जनता और राजनीतिक दलों के आचरण पर निर्भर करेगी।“ आज यह बात सत्य साबित हो रही है। संविधान नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य का सुरक्षा कवच है। जहां संविधान अधिकारों की रक्षा करने का सामर्थ्य रखता है, वहीं कर्तव्य के प्रति जागृत करता है। इसका अर्थ है कि अधिकार और कर्तव्य के बीच सदैव संतुलन रहना चाहिए। हमारे संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता और परिश्रम के द्वारा कालजयी प्रति का निर्माण किया,जिसके कारण हम सभी नागरिक सुरक्षित हैं।

संविधान से परे कोई नहीं। संविधान से ऊपर भी कोई नहीं। हम सभी नागरिक संविधान से बंधे हुए हैं। विधायिका हो,कार्यपालिका हो,या न्यायपालिका। ये सभी संविधान से बंधे हुए हैं। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा के एक भाषण में ‘संवैधानिक नैतिकता’ के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था कि संविधान को सर्वोच्च सम्मान देना और वैचारिक मतभेदों से ऊपर उठकर संविधान सम्मत प्रक्रियाओं का पालन करना ‘संवैधानिक नैतिकता’ का सारतत्त्व है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केंद्र की सत्ता में दोबारा आने पर जब सांसदों को संबोधित कर रहे थे, तो उन्होंने अपने संबोधन की दूसरी तरफ ‘भारत के संविधान की प्रति’ रखी थी। उस भाषण में अंत में उन्होंने कहा था कि,’सबका साथ और सबका विकास’ के साथ-साथ हमें ‘सबका विश्वास’ भी जीतना है। मतलब साफ था, भारत के संविधान से बंधे एक-एक नागरिक का विश्वास जीतना उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है।उस भाषण के बाद उन्होंने “संविधान की प्रति के समक्ष हाथ जोड़कर संविधान को प्रणाम किया और देश को संदेश दिया कि ‘संविधान भारत की आत्मा’ है।

‘संविधान नागरिकों में सुरक्षा की गारंटी’ है। ‘संविधान लोकतंत्र का अलंकार’ है। वहीं कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका एक दूसरे के पूरक हैं। उनके इस संबोधन से देश में प्रत्येक नागरिक में नए भाव का संचार हुआ। आज उसी की परिणति कोरोना के इस वैश्विक संकट के दौरान दिख रही है। सरकार का प्रथम कर्तव्य है समाज के जीवन की सुरक्षा। और जीवन की सुरक्षा की गारंटी देने वाले को ही जनता सरकार में लाती है।

हमारे संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकार के रूप में सुरक्षा की जो गारंटी प्रदान की गई है उसमें छह अधिकार शामिल हैं- समता या समानता का अधिकार (अनुच्छेद14-18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24), धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार(अनुच्छेद 25-28), संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार(अनुच्छेद 29-30), और संवैधानिक अधिकार (अनुच्छेद 32)। समता या समानता के अधिकार के तहत विधि के समक्ष समानता , धर्म, नस्ल, जाति, सेक्स या जन्म स्थान के आधार पर भेद-भाव का निषेध, अवसर की समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन और उपाधियों का अंत के रूप में नागरिक को सुरक्षा प्रदान की जाती है।

वहीं संविधान छह प्रकार की स्वतंत्रता भी नागरिकों को प्रदान करता है, जिसमें बोलने की स्वतंत्रता और देश के किसी भी क्षेत्र में निवास करने और जीवन-निर्वाह की स्वतंत्रता मुख्यतया शामिल हैं। संविधान अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार के रूप में सभी प्रकार के शोषण से सुरक्षा प्रदान करता है। प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का भी अधिकार प्रदान किया गया है। संस्कृति और शिक्षा से संबंधित अनेकानेक अधिकार प्रत्येक नागरिक को संविधान प्रदान करता है। संविधान में संवैधानिक उपचारों का सर्वोपरि अधिकार भी दिया गया है जिसे डॉ. अंबेडकर ने ‘संविधान की आत्मा’ कहा है, जिसके तहत नागरिक को मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

उन सभी अधिकारों की रक्षा करते हुए वैश्विक महामारी कोरोना के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस धर्म और साहस का परिचय दिया है, उससे प्रत्येक नागरिक का आत्मविश्वास जगा है। जन-जन के मन में राष्ट्र के प्रति ‘समर्पण का भाव’ जगा है। लोगों ने भूखे रहकर भी इस वैश्विक संकट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर अटूट विश्वास जताया है। आज किसी पर भी दोषारोपण का समय नहीं है। न यह समय श्रेय और होड़ लेने की है। पर इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि जो अच्छा कर रहे हैं उनकी प्रशंसा नहीं होनी चाहिए। बुरा करने पर बुराई का अधिकार है, तो अच्छा करने पर प्रशंसा करने का भी अधिकार होना चाहिए। यह समय गुमराह करने का नहीं, सभी को एक राह पर चलने का है।

बिल्ली जब दूध पीती है तो अपना आंख मूंद लेती है है, उसे लगता है कोई नहीं देख रहा। लेकिन दूध पीते बिल्ली को सब देख रहे होते हैं। आज नागरिक के नाते, परिवार के नाते, समाज के नाते , संस्था के नाते, दल के नाते जो कुछ भी कर रहे हैं, भले ही अपनी दो आंखों से देखें, दुनिया हजार आंखों से देख रही है।
कोरोना वैश्विक महामारी के इस माहौल में संविधान में दिए गए मूल कर्तव्य का हमें स्मरण करना चाहिए। यह समय है जब प्रत्येक नागरिक को अपने नागरिक कर्तव्य को जागृत कर एक-दूसरे का पूरक बनकर सामने आएं। ‘सहयोग’ शब्द की परिभाषा को परिभाषित करने का हमें ऐतिहासिक अवसर मिला है। आज अधिकारों की कम, कर्तव्यों की चर्चा अधिक करनी है। प्रत्येक राष्ट्र के जीवन-काल में ऐसा अवसर आता ही है। हम जानते हैं रोम, यूनान मिट गए, लेकिन वर्षों की गुलामी के बाद भी हम नहीं मिटे क्योंकि हमारी संस्कृति का मूल आधार है ‘मानवता’। जैसे ही हम यह कहते हैं, उसके मूल में कर्तव्य की आराधना और अर्चना शुरू हो जाती है।

प्राचीन काल से ही भारत में लोकतंत्र की गौरवशाली परंपरा विद्यमान थी। इतिहासकारों की मानें तो प्राचीन भारत में गणतंत्र की अवधारणा रोम, यूनान की गणतंत्र प्रणाली से भी पहले की है। इसी प्राचीन अवधारणा में भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप की विधा छिपी हुई है। प्राचीन काल से ही भारत में कर्तव्यों के निर्वहन की परंपरा रही है, जहां व्यक्ति के ‘कर्तव्यों’ पर ज़ोर दिया जाता रहा है। प्राचीन ग्रन्थ रामायण और भगवद्गीता भी लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिये प्रेरित करता है।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि व्यक्ति को फल की अपेक्षा के बिना अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिये। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’। हम बापू (गांधी जी) की 150वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। उनका कहना था कि “हमारे अधिकारों का सही स्रोत हमारे कर्तव्य होते हैं और यदि हम अपने कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वाह करेंगे तो हमें अधिकार मांगने की आवश्यकता नहीं होगी।”

यहां एक प्रसंग याद आता है एक पति- पत्नी के दो पुत्रियां और दो पुत्र थे। परिवार में पिता की आमदनी बहुत कम थी। रात को सोते समय पति- पत्नी अपनी पुत्री जो बड़ी हो रही थी, उसके विवाह के विचार में डूबे रहते थे। आपस में चर्चा करते थे कि बड़ी बेटी विवाह में कर्ज में डूब जायेंगे, बच्चे पढ़ नहीं पायेंगे, और आर्थिक स्थिति बिगड़ जाएगी। एक रात यह चर्चा बड़ी बिटिया ने सुन लिया और सोच में पड़ गई। मां से कहा, मेरे विवाह की चिंता मत करो। मेरे विवाह न करने मात्र से मेरे भाई-बहन पढ़ लेंगे, आर्थिक स्थिति भले ही सुदृढ़ न हो पर पटरी पर बनी रहेगी।

अतः विवाह के लिए कर्ज नहीं लेना है। माता-पिता चिंतित हुए। बेटी को मनाया लेकिन नहीं मानी। अपने दैहिक जीवन का समर्पण कर परिवार के कर्तव्य को निभाया। परिणाम हुआ, तीनों भाई-बहन ने पढ़ाई की और घर की हालत भी नहीं बिगड़ी। दैहिक रूपी समर्पण कर्तव्य से वह अपने माता-पिता से बड़ी हो गई। जब तक जीवित रही कोई भी उससे पूछे बिना कोई काम नहीं करते। समर्पण रूपी कर्तव्य भारत में कर्तव्य की मूल आवधारणा है।

संविधान में हमारे ग्यारह मौलिक कर्तव्य हैं। पहला, संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्र गान का आदर करना। दूसरा, स्वतंत्रता के लिये हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों का पालन करना। तीसरा, भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना। चौथा, देश की रक्षा करना और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करना। पांचवां, भारत के लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करना; जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो। साथ ही ऐसी प्रथाओं का त्याग करना जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं। छठा, हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्त्व देना और संरक्षित करना। सातवां, वनों, झीलों, नदियों और वन्यजीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना और प्राणिमात्र के लिए दयाभाव रखना। आठवां, मानवतावाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा ज्ञानार्जन एवं सुधार की भावना का विकास करना। नौवां, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करना एवं हिंसा से दूर रहना। दसवां, व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिये प्रयास करना ताकि राष्ट्र लगातार उच्च स्तर की उपलब्धि हासिल करे। ग्यारहवां, 6 से 14 वर्ष तक के उम्र के अपने बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना।

हमारा जीवन जन्म से मरण तक कर्तव्यों से जुड़ा हुआ है। जो जीवन कर्तव्य की भूमिका से परिपूर्ण होता है, उसको राष्ट्र कभी नहीं भूलता। आज क्या हम उन्हें भूल सकते हैं जो कोरोना संकट की लड़ाई में अपने जीवन को जोखिम में डाले हुए हैं। किसी के बच्चे हैं, माता-पिता हैं, भाई-बहन हैं। हम कैसे भूल सकते हैं चिकित्सकों को, प्रशासकों को, राजस्वकर्मियों को, पुलिस बलों को, स्वास्थ्यकर्मियों को, सफाई कर्मचारियों को। जीवन मूल के वस्तुओं को उपलब्ध कराने वालों और अन्नदाता किसान को, जो खेतों में लगे हुए हैं।

सभी राष्ट्र कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। उनके कर्तव्य समर्पण से ही प्रधानमंत्री का आत्म विश्वास जगा। अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी, रूस, जापान, इटली, स्पेन अपने को विकसित राष्ट्र मानता है। वैश्विक महामारी कोरोना के सन्दर्भ में उनकी आबादी और हमारी आबादी के बारे में अगर हम विचार करते हैं तो पाते हैं, अधिक आबादी होते हुए कर्तव्यपरायण हैं। भारत का एक-एक नागरिक अपने कर्तव्यपरायणता में शत-प्रतिशत उतीर्ण हो रहा है । हम अपने को भाग्यशाली तो नहीं कह सकते, लेकिन कोरोना महामारी संकट से एकजुट राष्ट्र लड़ रहा है। प्रेरणा मिल रही है, व्यक्ति-परिवार जीवन में संकट आए तो हमें कैसे लड़ना चाहिए।

हम भारत को सिर्फ भारत नहीं कहते। भारत हमारी माता है। माता के प्रति प्रत्येक पुत्र का ‘कर्तव्य’ होता है। यह संकट का समय भले ही महामारी कोरोना के कारण आया है, पर हमें माता के प्रति कर्तव्य निभाने का समय ने एक ऐतिहासिक अवसर प्रदान किया है।

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