साढ़े तीन साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में जीते ५४१ सांसदों में से १८६ के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। २००९ के लोकसभा चुनाव में जीते १५९ सांसदों के खिलाफ मामले दर्ज थे। यही हाल विधायक, जिला प्रमुख और प्रधानों को लेकर हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाई के दौरान दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन की बात कही थी। चुनाव आयोग ने सजायाफ्ता सांसद-विधायकों के चुनाव लडऩे पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की वकालत की थी। न्याय की धीमी प्रक्रिया के चलते दागी सांसद-विधायकों के मामलों के निपटारे में देरी होती है।
यहां सवाल कानूनी प्रक्रिया से अधिक मंशा का है। सभी राजनीतिक दल राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को लेकर चिंता तो जताते हैं लेकिन इसके लिए जरूरी कदम नहीं उठाते। हर राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए अपराधी छवि वाले प्रत्याशियों को टिकट देने से परहेज नहीं करता। गुजरात में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। यहां भाजपा और कांग्रेस ने दागी प्रत्याशियों को टिकट देने में कोताही नहीं बरती है। चुनाव में तीन सौ प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं।
राजनीतिक दल अगर ठान लें तो कोई कारण नहीं कि अपराधी छवि के लोग संसद और विधानसभाओं की दहलीज लांघ सकें। इसके लिए कुछ खास करने की जरूरत नहीं। जरूरत है तो अपराधी छवि के लोगों को टिकट देने से बचने की है। दागी जनप्रतिनिधियों ने देश की राजनीतिक छवि को धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दागी राजनेताओं के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें तो बनें ही लेकिन ऐसे तत्त्वों को हाशिए पर पहुंचाने की जिम्मेदारी भी बड़े नेताओं को ही उठानी होगी।