जब सत्ता बल का अहंकार सिर चढऩे लगता है तो व्यक्ति सबसे पहले स्वयं का भविष्य सुरक्षित करता है। हर प्रकार की सजा से स्वयं को अभयदान दे देता है। रूस के प्रधानमंत्री पुतिन का उदाहरण सामने ही है। उन्होंने बाकायदा कानून बनवा कर जीवन पर्यन्त स्वयं को सुरक्षित कर लिया। भारत में भी जब-तब ऐसे प्रयास होते रहे हैं। केन्द्र सरकार और कुछ राज्य सरकारें भी चुपचाप ऐसे कानून या नियम बना चुकी हैं, जिनमें अफसरों को संरक्षण के नाम पर ‘अभयदान’ दिया गया है। राजस्थान में पिछली सरकार ने भी ऐसा ही एक काला-कानून अध्यादेश के माध्यम से लाकर भ्रष्ट अफसरों को अभयदान देने की चेष्टा की थी। उस समय ‘पत्रिका’ ने इस कानून के खिलाफ ‘जब तक काला-तब तक ताला’ जैसा अभियान चलाकर सरकार को कानून वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया था।
मध्यप्रदेश में दो साल पहले ऐसा ही एक और लोकतंत्र विरोधी नियम लागू करने की कोशिश की गई थी। विधायकों के प्रश्न पूछने के अधिकार पर ही एक तरह से सेंसरशिप लागू की जा रही थी। तब भी ‘पत्रिका’ ने इस मुद्दे पर आवाज उठाई। ‘पत्रिका’ की पहल को व्यापक जनसमर्थन मिला और विधानसभा को अपना निर्णय बदलना पड़ा। आश्चर्य यह है कि जनता के हित चिन्तन की बात करने वाले मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकारों के इस तरह के लोकतंत्र विरोधी कदमों पर मौन रह जाता है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में ऐसे कानूनों का ‘पत्रिका’ ने न सिर्फ विरोध किया, बल्कि सरकारों को उन्हें वापस लेने को मजबूर किया।
मध्यप्रदेश के सामान्य प्रशासन सचिव डॉ. श्रीनिवास शर्मा के हस्ताक्षर से जारी इन आदेशों से लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसियां शक्तिविहीन हो जाएंगी। सबसे बड़ी आशंका यह है कि सरकारें राजनीतिक आधार पर इन नियमों का दुरुपयोग करेंगी। चहेते अफसरों के मामले में जांच करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। इससे ईमानदारी से काम करने वाले लोक सेवकों का मनोबल टूटेगा और भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ेगा।
इस तरह के नियम सरकारों को स्वच्छन्दता की ओर बढ़ाते हैं। मध्यप्रदेश सरकार का लोकतंत्र में विश्वास है तो काले कानून को प्रतिष्ठित करने वाले आदेश को तुरन्त वापस लेना चाहिए। यदि सरकार इसे वापस न ले तो भ्रष्टाचार को पालने-पोसने वाले इस कानून को उसे रद्द कर देना चाहिए।