भारत सहित दुनिया के कई देशों में डिजिटल विकास के नए-नए जतन किए जा रहे हैं और रोजमर्रा के काम में परस्पर डिजिटल व्यवहार को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस बीच यूरोपीय और अमरीकी देशों ने ‘डिजिटल डिटॉक्स’ को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया है। डिजिटल डिटॉक्स का अर्थ है मोबाइल, लैपटॉप, पामटॉप जैसे उपकरणों से दूर रहना और अपने साथ मौजूद लोगों से संवाद करना या परिवेश के सौंदर्य का आनंद लेना।
पाश्चात्य देशों में तो अब पार्टियों में जाते समय प्रतिभागियों से उनके मोबाइल, लैपटॉप आदि ले लिए जाते हैं। आयोजन स्थल पर एक जैमर भी लगा होता है जो इंटरनेट तरंगों के प्रवाह को बाधित करता है। पश्चिमी देशों में कई परिवारों में तो यह सामान्य संहिता तय कर दी गई है कि नाश्ते के समय या अन्य किसी मौके पर जब परिवार के सभी सदस्य मौजूद हों, कोई भी अपने मोबाइल या लैपटॉप का इस्तेमाल नहीं करेगा।
परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठे हों, पर सभी अपने-अपने मोबाइल या लैपटॉप पर व्यस्त हों। ऐसे दृश्य भारतीय परिवारों में सामान्य हो गए हैं। एक ही छत के नीचे रहकर भी सबका अपना आभासी संसार बन जाता है। दरअसल मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप या टीवी जैसे उपकरण अब सामान्य जीवन की जरूरत तो बन गए हैं, लेकिन इनकी स्क्रीन से सतत संगति व्यक्ति के स्वभाव में अलग ही तरह का चिड़चिड़ापन भर रही है।
दुनिया भर में हुए शोध के निष्कर्ष हैं कि इन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की स्क्रीन के ज्यादा संपर्क में रहने वाले चिड़चिड़ापन, स्मृतिलोप, दृष्टिदोष, मोटापा, कंधे और गर्दन के दर्द, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा और अवसाद जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता जब एक साथ इतने मोर्चों पर जूझ रही हो तो वह दैनिक व्यवहार को भी प्रभावित करती है। स्मार्टफोन के प्रति आसक्ति कई दुर्घटनाओं का कारण भी बनती रही है।
यह सच है कि स्मार्टफोन में समाए अनगिनत फीचर्स ने हमारी दुनिया बदल दी है। लेकिन इन फीचर्स के प्रति दीवानगी की हद तक चले गए आसक्तिभाव ने मनुष्य को अपनों के बीच भी अकेला कर दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स का नशा व्यक्ति को हमेशा मोबाइल फोन में व्यस्त रखता है। अति किसी भी स्तर पर वरेण्य नहीं है। दुर्भाग्य से डिजिटल माध्यमों के प्रति हमारा आसक्ति भाव अतिवादिता से ग्रस्त होता जा रहा है।