सीबीआइ की साख
जांच एजेंसी को सभी प्रकार के बाहरी दबावों से बचा कर रखना लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के लिए जरूरी है। इससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता।

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) की साख वर्तमान राजनीतिक माहौल में शक और शुब्हे में है। कुछ समय पहले इस प्रमुख जांच एजेंसी में जो घटनाक्रम चला उसने इसकी साख को बट्टा ही नहीं लगाया, बल्कि उसे शर्मसार भी किया। एजेंसी ने अपने ही दूसरे नंबर के अधिकारी राकेश अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया। इस अंदरूनी झगड़े में सरकार ने टांग अड़ाई और राकेश अस्थाना को हटाते हुए सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा को भी जबरन छुट्टी पर भेज दिया। इसके खिलाफ वर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने सरकारी आदेश को निरस्त कर दिया है और एक ऐसी व्यवस्था दी है जिससे सीबीआइ के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप को रोका जा सके और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हो सके।
यह दुर्भाग्य की बात है कि सत्ता में बैठे राजनेता सीबीआइ को भी किसी अन्य सरकारी विभाग की तरह हांकने के यत्न करते हैं और उनकी कारगुजारियों पर अंकुश लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना पड़ता है। राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण इस जांच एजेंसी की क्षमता और ईमानदारी पर प्रश्न चिह्न लगते हैं। एक समय था, जब बात बढ़ जाती तो लोग सीबीआइ जांच की मांग कर लेते थे क्योंकि उसकी निष्पक्षता पर सबको भरोसा था। उसकी साख ऐसी ही थी। वह इसलिए थी क्योंकि उसे निष्पक्षता से काम करने की स्वतंत्रता थी। किसी भी जांच एजेंसी की निष्पक्षता और उसकी जांच की उत्कृष्टता न्याय के लिए पहली शर्त होती है। न्यायालयों में न्याय को लेकर तभी आश्वस्त हुआ जा सकता है जब जांच एजेंसियां बिना किसी भेद-भाव के प्रभावी तरीके से काम करें। मगर अनेक बार लगा कि सीबीआइ जांच राजनीतिक प्रपंच में पड़ गई और किन्हीं का भाग्य बनाने-बिगाडऩे के खेल में लग गई।
इसी के चलते उसके कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के लिए सर्वोच्च अदालत ने 1997 में व्यवस्था दी कि सीबीआइ के प्रमुख का चयन एक समिति करे और नियुक्ति के बाद उसके निदेशक को कम से कम दो वर्ष लगातार काम करने दिया जाए और उसे बीच में नहीं हटाया जाए। उसी व्यवस्था के तहत वर्मा ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था। अदालत ने अपने आदेश में सरकार के उस आदेश को निरस्त कर दिया है जिसके जरिए वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया था।
अदालत का मत है कि वर्मा के बारे में फैसला लेने का अधिकार सरकार को नहीं, बल्कि उस समिति को है जिसने उनका चयन किया। इस समिति में प्रधानमंत्री, संसद में विपक्ष के नेता और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश सदस्य होते हैं। यह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिसे दरकिनार करना सरकार को भारी पड़ा है। यह अच्छी बात है कि सरकार ने अदालत के आदेश को मानते हुए इस समिति की बैठक तुरंत बुलाई है।
यह मान लेना कि इस एक कदम से सीबीआइ में एकदम सब कुछ ठीक हो जाएगा, मासूमियत होगी। जांच एजेंसी के उपयोग की शक्ति को छोडऩा राजनेताओं के लिए आसान नहीं होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी हमारे राजनेताओं को सामंती परंपरा भाती है और वे अपने गुरूर, अपनी मर्जी, और अपने तरीके से सीबीआइ को संचालित करना चाहते हैं। मगर जांच एजेंसी को सभी प्रकार के बाहरी दबावों से बचा कर रखना लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के लिए जरूरी है। इससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च अदालत ने यही संदेश दिया है। समय आ गया है कि सीबीआइ को निष्पक्ष बनाया जाए। यह संघीय एजेंसी है जिसे सिर्फ तथ्यों के आधार पर बिना किसी दबाव के अपनी जांच करते हुए नतीजों पर पहुंचना चाहिए। अभी यह एजेंसी दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के तहत काम करती है जो आजादी से पहले बना था। अब समय आ गया है कि सीबीआइ के लिए कोई ऐसी नई वैधानिक व्यवस्था बनाई जाए जिसमें वे सारे सरोकार शामिल हों, जो समय-समय पर अदालतों ने व्यक्त किए हैं और जिसमें अब तक के अनुभवों का निचोड़ भी हो। ऐसी व्यवस्था का सुझाव नया नहीं है। आपातकाल के बाद 1978 में बने एलपी सिंह आयोग, जिसने सीबीआइ और आइबी के कामकाज की समीक्षा की थी, ने भी ऐसी ही सिफारिश की थी।
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