इन रवायतों का हाथ थाम कर युगों की सैर की जा सकती है। वनवासी समुदायों से लेकर लोक और उसके सामानांतर विकसित आधुनिक समाजों तक बोले हुए शब्दों ने सकारात्मक सांस्कृतिक पर्यावरण तैयार किया। यह गीत-संगीत, नृत्य, नाटक और रूपंकर कलाओं के जरिए अभिव्यक्ति के हुनर में ढलता रहा। एक सिरे पर मनोरंजन, तो दूसरे छोर पर बेचैन और हताश जीवन के लिए समाधान की रोशनी। यहां परंपरा में लय होते जीवन का लालित्य है। उत्सव की उमंगें हैं। आस्था के आयाम हैं। कलाओं के आईने में अपने ही अक्स निहारने की हसरत भरी मुस्कान भी है।
राम के जन्म का मुहूर्त चैत्र की नवमी के साथ जाने कितनी ही शक्लों में पर्व का प्रतीक बनता है, लेकिन वाचिक परंपरा में राम की स्मृति एक ऐसी सांस्कृतिक धरोहर का रूप ले चुकी है, जिसके साथ पीढिय़ों का रागात्मक रिश्ता सदियों से बना हुआ है। कितनी ही शैलियों में राम के लीला चरित का बखान होता रहा है। जन्म भूमि अवध से चलकर दक्षिण, उत्तर-पूर्व और गुजरात से लेकर राजस्थान और मध्य प्रदेश तक जनजातीय, लोक और नागर साहित्य और कलाओं में राम की छवियां बिखरी पड़ी हैं। सबके अपने-अपने राम। यह अपनापा इतना उदार और प्रेम भरा है कि पूरा सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना इसके आस-पास आकार ले लेता है। लोक समाज को इसके लिए किसी की अनुमति लेने की दरकार नहीं। शब्द, स्वर, गान, संगीत, रंग, लय, गति, अभिनय और ढलती हुई मूरतों में अभिव्यक्ति की यह उड़ान ही लोक की सच्ची धरोहर है।
(लेखक कला साहित्य समीक्षक, टैगोर विश्वकला एवं संस्कृति केंद्र के निदेशक हैं)