scriptकानून के दुरुपयोग का सवाल | Dalit vs Savarn: Question of misuse of law | Patrika News

कानून के दुरुपयोग का सवाल

locationजयपुरPublished: Oct 25, 2018 07:14:18 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि अजा/ अजजा कानून का दुरुपयोग होता रहा है, मगर वैसे ही जैसे महिला, वृद्ध समुदाय आदि से संबंधित अन्य सामाजिक कानूनों का हुआ है। सवाल यह उठता है कि यह दुरुपयोग कौन करवाता है? इसके पीछे ताकतवर लोगों की गुटबंदी, परस्पर प्रतिशोध और खासकर स्थानीय राजनीति रही है।

HARI RAM MEENA OPINION

HARI RAM MEENA OPINION

हरि राम मीणा, साहित्यकार
दलित बनाम सवर्ण के नाम पर पिछले कुछ महीनों से जो सामाजिक तनाव है उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। इसकी शुरुआत अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को लेकर सुप्रीम कोर्ट के गत 20 मार्च के निर्णय से होती है। इस निर्णय एवं केंद्र सरकार द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश में बार-बार इस बात पर जोर दिया गया कि इस अधिनियम के तहत पुलिस द्वारा बिना अनुसंधान के तुरंत गिरफ्तारियां की जाती रहीं हैं, जो कि न्यायसम्मत नहीं है। ‘इसलिए हमने (न्यायालय ने) केवल पुलिस की इन शक्तियों पर अंकुश लगाया है। इसके अलावा कानून को किसी भी रूप से कमजोर नहीं किया गया है।’

शीर्ष अदालत के निर्णय के बाद दलित संगठनों ने भारत बंद किया। विडंबना है कि सामाजिक न्याय जैसी अवधारणा भी विकट राजनीति में तब्दील हो जाती है। दलित आंदोलन से सत्ता को चुनावी हानि होने की आशंका के चलते अधिनियम में नई धारा (18 ए) जोड़ते हुए संशोधन संसद में पारित कर दिया गया, जिससे अदालत के आदेश निष्प्रभावी हो गए। इसके विरोध में सवर्ण समुदाय ने भारत बंद का आह्वान कर दिया। सरकार दबाव में है और कानून के कथित दुरुपयोग पर अंकुश लगाने की व्यवस्था की बात कर रही है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में पहला मुद्दा है अधिनियम की धारा 18 का। इसमें अग्रिम जमानत के निषेध का तर्क है कि दलित व आदिवासियों पर अत्याचार करने वाले इसका कोई दुरुपयोग कर सकते हैं। अग्रिम जमानत के मुद्दे पर न्यायालय का अभिमत है कि प्रथम दृष्टया अथवा न्यायिक जांच में कोई आरोप सिद्ध नहीं होता तो अग्रिम जमानत पर कोई पाबंदी लगाना अवैधानिक होगा, क्योंकि यह आरोपी के मूल अधिकारों का हनन है।

दूसरा मसला है गिरफ्तारी का। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि अधिनियम का दुरुपयोग रोकने के लिए गिरफ्तारी से पूर्व सबूतों का विश्लेषण और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक से अनुमति लेना अनिवार्य होगा। इसके साथ गिरफ्तार व्यक्ति की हिरासत बढ़ाने के लिए संबंधित अदालत को पर्याप्त कारणों की जांच करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देते हुए जोर दिया है कि अधिकांश मुकदमे झूठे पाए गए हैं, जिससे स्पष्ट है कि इसका व्यापक दुरुपयोग किया जाता रहा है। सवाल यह उठता है कि अगर मुकदमा झूठा साबित होता है तो उसमें गिरफ्तारी का सवाल ही पैदा नहीं होता। आरोप सिद्ध न होने पर आपराधिक प्रक्रिया संहिता में गिरफ्तार व्यक्ति की रिहाई का प्रावधान पहले से ही है। बार-बार यह प्रचारित किया जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम के तहत होती रही ‘ऑटोमेटिक अरेस्ट’ पर रोक लगा दी। इससे ध्वनि निकलती है मानो पहले एफआइआर के साथ ही गिरफ्तारी हो जाया करती हो।

सर्वोच्च न्यायालय का तीसरा और अंतिम बिंदु है: किसी भी शिकायत पर एफआइआर दर्ज करने के बजाय सात दिन के भीतर डीएसपी रैंक के अधिकारी द्वारा जांच करवाई जाएगी कि आरोपों के पक्ष में पर्याप्त सबूत हैं या नहीं। न्यायिक सिद्धांत यह है कि किसी भी शिकायत के मजमून से अगर संज्ञेय अपराध बनता है तो आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत थानाधिकारी एफआइआर पंजीबद्ध करने के लिए बाध्य है। अनुसंधान से आरोप सही पाए जाते हैं कि नहीं, यह बाद की बात है। लोगों के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही का स्पष्ट प्रावधान है।

हजारों वर्षों से वर्चस्ववादी शक्तियों द्वारा सताए जा रहे दलित-आदिवासियों की सुरक्षा के लिए जो कानून बनाया गया, वह सामाजिक विधान की सुखद परिवर्तनकामी वैचारिकी का हिस्सा है। संविधान निर्माण की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज की गहरी समझ रही है। आजादी के तुरंत बाद अस्पृश्यता उन्मूलन अधिनियम लागू किया गया था। बाद में उसके स्थान पर यह कानून बनाया गया। जब यह महसूस किया गया कि अनुसूचित जाति व जनजाति की सुरक्षा, सम्मान व सामाजिक न्याय की दृष्टि से और सख्त कानून की जरूरत है तब जाकर यह अधिनियम सन 1989 में लागू किया गया।

बिना अनुसंधान और पर्याप्त साक्ष्य के किसी भी कानून में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है और न ही ऐसा कानूनन संभव है। आंकड़ों से भी इसे साबित किया जा सकता है। यह कहना आसान है कि अमुक संख्या में दर्ज मुकदमे ‘झूठे’ पाए गए। सवाल उठता है कि क्या उनमें से कोई गिरफ्तारी हुई?

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि अजा/ अजजा कानून का दुरुपयोग होता रहा है, मगर वैसे ही जैसे महिला, वृद्ध समुदाय आदि से संबंधित अन्य सामाजिक कानूनों का हुआ है। सवाल यह उठता है कि यह दुरुपयोग कौन करवाता है? इसके पीछे ताकतवर लोगों की गुटबंदी, परस्पर प्रतिशोध और खासकर स्थानीय राजनीति रही है। यह समाज का वह तबका है, जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अर्थ, धर्म और राज की सत्ता पर परंपरागत आधिपत्य रहा है।

(कवि-कथाकार। अखिल भारतीय आदिवासी मंच के अध्यक्ष। मीरां पुरस्कार से सम्मानित। सेवानिवृत्त आइपीएस।)

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