दूसरी तरफ, यह भी सच है कि अध्यात्म और धर्म का रिश्ता अक्सर विवादों में रहा है। धार्मिक पंथ कब अध्यात्म के मार्ग से भटक जाए, कहा नहीं जा सकता। मार्ग से भटके ऐसे ही मठाधीश धर्म के लिए कलंक साबित होते हैं। इसके उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहे हैं।
अध्यात्म और धर्म के साथ राजनीति मिल जाए, तो पथभ्रष्ट होने की आशंका प्रबल हो जाती है। हाल में घटित दो मामलों पर गौर करने की जरूरत है। पहला मामला अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि की कथित आत्महत्या का है। इसमें उनके ही शिष्यों को गिरफ्तार किया गया है। महंत की मौत की गुत्थी को तो पुलिस सुलझाएगी। लेकिन, विचारणीय यह भी है कि आध्यात्मिक पुरुष होने के कारण हमारी श्रद्धा हासिल करने वाले व्यक्तियों के इर्द-गिर्द न जाने क्या-क्या चलता रहता है। हमारी श्रद्धा से हासिल शक्ति का क्या यह नाजायज इस्तेमाल नहीं है? दूसरा मामला उत्तर प्रदेश में मौलाना कलीम सिद्दीकी की गिरफ्तारी का है। धर्मांतरण का राष्ट्रव्यापी सिंडिकेट चलाने के आरोप में एटीएस ने उन्हें गिरफ्तार किया है। आरोप है कि अंतरराष्ट्रीय फंडिंग का इस्तेमाल कर वह जनसंख्या अनुपात बदलने की नीयत से धर्मांतरण करा रहा था। इंसानियत के पैगाम के बहाने इस्लाम स्वीकार करने के लिए उकसाता था। जाहिर है यह राजनीतिक उद्देश्य है।
दुनिया का कोई भी धर्म पथ से भटकाव की अनुमति नहीं देता। बल्कि, धर्म का इस्तेमाल तो भटके हुए को रास्ते पर लाने के लिए होता है। देखा जा रहा है कि किस तरह धर्म की आड़ में दुनिया को आतंकवाद की आग में झोंका जा रहा है। ऐसे में खासतौर पर सच्चे धार्मिक नेताओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि अपने बीच मौजूद इंसानियत के दुश्मनों को समय रहते पहचानें और उनका पर्दाफाश करते हुए सही जगह पहुंचाएं। इससे पहले कि कोई अन्य धर्मावलंबी उंगली उठाए, स्वयं सुधार करना जरूरी है। अन्य के उंगली उठाते ही सांप्रदायिक सौहार्द बिगडऩे का नया खतरा पैदा हो जाता है।