भारतीय वांग्मय में कवि शब्द का प्रयोग ऋषियों के लिए भी किया गया है। एक ऐसा मनुष्य जो संपूर्ण मानवता के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध हो और जिसकी चेतना निज-पीड़ा को भी समाज के लिए सृजन के उल्लास में बदल दे, वही मनुष्य भारतीय जीवन-दर्शन के अनुसार सच्चे अर्थों में कवि है। 10 फरवरी 1931 को मध्यप्रदेश के नीमच जिले के मनासा नगर में जन्मे बालकवि बैरागी अपनी शब्द साधना के दम पर ही देश और दुनिया में हिन्दी की समकालीन कविता की सम्यक् चेतना के वाहक के तौर पर पहचान बना पाए।
एक अभावग्रस्त परिवार में जन्मे बैरागी को अभावों की कांटों भरी राहों से गुजरना पड़ा। इस दौर के अनुभवों को उन्होंने सृजन की संजीदगी से कुछ इस तरह गूंथा कि सुनने वाले स्वयं को सम्मोहित होने से कभी नहीं बचा सके। बालकवि बैरागी का मूल नाम नंदराम दास बैरागी था। छोटी उम्र में ही वे कविता करने लगे थे। एक समारोह में मुख्य अतिथि को उनका नाम याद नहीं रहा तो उन्होंने ‘बालकवि’ कहकर बैरागी की प्रतिभा की प्रशंसा की। तभी से नंदरामदास बैरागी का नाम बालकवि बैरागी हो गया। वे मध्यप्रदेश में मंत्री रहने के अलावा सांसद भी रहे। उस दौर में बालकवि बैरागी की आत्मकथा ‘मंगते से मंत्री तक’ बहुत लोकप्रिय हुई थी।
बालकवि बैरागी को यह देश तेजस्वी चिंतक और ओजस्वी कवि के रूप में याद करेगा। उन्होंने कभी भी अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को अपने सृजन के सरोकारों पर हावी नहीं होने दिया। आधुनिक हिन्दी कवि सम्मेलनों को लोकप्रियता के नए आयाम देने वाले कवियों में बालकवि बैरागी का नाम प्रमुखता से लिया जाता रहेगा। तार सप्तक का स्पर्श करने वाले स्वरों के साथ जब वो अपना गीत ‘पणिहारी’ सुनाते थे तो सभागार तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज जाया करता था। वो गंभीर से गंभीर बात कहते हुए किसी चुटकुले या रोचक टिप्पणी से श्रोताओं को हंसाते-हंसाते कुछ ऐसा कह देते थे जो गहरे तक दिल में उतर जाता था।
नई पीढ़ी के प्रति वो सदैव उदार रहे। इस उम्र और इस दौर में भी वे हाथों से पत्र लिखा करते थे। उनका मानना था कि उनके बाद ये पत्र ही उनकी निशानी के तौर पर उनके प्रशंसकों के पास बचेंगे। लिखावट यदि कुछ कहती है तो उनके पत्रों पर बिखरे मोती जैसे अक्षर बताते हैं कि उन्होंने जीवन को कितनी जिम्मेदारी और संजीदगी से जिया है। वे सही अर्थों में कर्मवीर रहे। बढ़ती उम्र के प्रभावों को वे हमेशा चुनौती देते नजर आए। अपने अंतिम समय तक वे सक्रिय रहे।