ऐसे परिवार जो कृषि में संलग्न नहीं हैं, उन्हें औसतन कुल आमदनी का 54.2 प्रतिशत मजदूरी से, 32 प्रतिशत सरकारी और निजी नौकरियों से और मात्र 11.7 प्रतिशत ही उद्यम से प्राप्त होता है। यदि कृषि और गैर कृषि में संलग्न परिवारों को मिला दिया जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 23 प्रतिशत ही आमदनी कृषि से हो रही है और शेष 77 प्रतिशत मजदूरी, सरकारी-निजी नौकरियों और उद्यम से प्राप्त होता है।
इन आंकड़ों से जो चिंताजनक तस्वीर उभर कर आई है वह यह है कि ग्रामीण इलाकों में आमदनी के लिहाज से खेती-बाड़ी हाशिए पर आ गई है। हालांकि किन्हीं दो स्रोतों से आंकड़ों की तुलना करना शोध की दृष्टि से औचित्यपूर्ण नहीं होता, फिर भी गांवों और शहरों की तुलना के लिए मात्र यही एक माध्यम बचता है क्योंकि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) गांवों और शहरों की आमदनी के आंकड़ों का नियमित प्रकाशन नहीं करता।
नाबार्ड के सर्वेक्षण 2016-17 के मुताबिक ५० हजार से कम आबादी के गांव-शहरों के कुल 21.17 करोड़ परिवार में सिर्फ १०.०७ करोड़ ही कृषि आधारित परिवार हैं। ये वे हैं जिनके परिवार के कम से कम एक सदस्य की सालाना आमदनी पांच हजार रुपए से ज्यादा है। वर्ष -२०११ की जनगणना के अनुसार देश में 68.8 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है। यदि वर्ष 2016-17 की परिकल्पित जनसंख्या को लिया जाए तो ग्रामीण जनसंख्या 90.30 करोड़ मानी जाएगी। यदि गांवों में 21.17 करोड़ परिवार हैं तो औसतन परिवार का आकार 4.27 सदस्यों का है।
कुछ वर्ष पहले तक शहरी प्रति व्यक्ति आय ग्रामीण प्रति व्यक्ति आय से 9 गुणा ज्यादा थी। 2016-17 तक आते-आते यह अंतर 12.3 गुणा तक पहुंच गया है। यह शहर और गांव के बीच बढ़ती खाई चिंता का विषय है और नीति-निर्माताओं के लिए एक चुनौती भी। यह गांवों से शहरों की ओर पलायन का कारण भी है और गांवों में बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी का संकेत भी।