नेता किसी भी पार्टी में क्यों न रहें, सबकी विचारधारा एक जैसी होती है। पार्टी में रहो तो पार्टी की जय-जय और छोड़ो तो उसकी सैकड़ों खामियां गिना दो। उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने भी नेताओं की उस खूबी में चार चांद लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने भाई विजय बहुगुणा की तरह उन्होंने भी कांग्रेस छोड़ गुरुवार को भाजपा का दामन थामा तो कांग्रेस को भी जमकर कोसा और राहुल गांधी को भी आड़े हाथों लिया। सर्जिकल स्ट्राइक पर नरेंद्र मोदी की वाहवाही भी की तो कभी भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी बताते नहीं थकने वाली रीता ने राज्य में कमल खिलाने का संकल्प भी दोहराया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में भगवा ध्वज थामने वाली रीता ने चार महीने की शेष रही विधानसभा की सदस्यता छोड़कर यह जताने का प्रयास भी किया कि उन्हें पद का कोई मोह नहीं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 300 सीटें जीतने का दावा करने वाली भाजपा ने भी उन रीता जोशी को गले लगाने से परहेज नहीं किया जो कल तक पानी पी-पीकर भाजपा, नरेंद्र मोदी और संघ को गरियाया करती थीं। उत्तर प्रदेश में चुनाव की रणभेरी बजने वाली है, सो आयाराम-गयाराम का खेल खेलने में भाजपा को भी कुछ अटपटा नहीं लगा। ढाई दशक तक कांग्रेस में रहीं रीता आज बेशक कह रही हो कि राहुल गांधी का नेतृत्व पार्टी में किसी को स्वीकार नहीं लेकिन ये वही रीता हैं जो गांधी परिवार और राहुल के कसीदे पढ़ते नहीं थकती थीं। कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा में तवज्जो न मिलने पर यही रीता जोशी फिर कांग्रेस का हाथ थामती नजर आ जाएं। दलबदल इस देश में पहले भी होते रहे हैं लेकिन वे सिद्धांतों और नीतियों में टकराव की वजह से हुआ करते थे। दलबदल के पीछे जायज कारण होता था। आज है कि पद या टिकट नहीं मिला तो नेता सालों की वफादारी ठुकराने में एक मिनट नहीं लगाते। यूपी में चुनावी बिगुल अभी बजा नहीं है। बिगुल बजते ही आयाराम-गयाराम का ये खेल और तेज होने के पूरे आसार हैं।