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चुनौती बनते रक्षा समझौते

locationजयपुरPublished: Jan 16, 2019 03:57:37 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

आजादी के बाद घरेलू रक्षा उपकरणों के उत्पादन की ज्यादातर योजनाएं विफल रही हैं। चाहे टैंक हों, हेलीकॉप्टर या लड़ाकू विमान, देश की सेनाएं ही डीआरडीओ के उपकरणों को स्तरीय नहीं मानतीं।

Defense agreement

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स्वर्ण सिंह, अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ

बीते साल रक्षा को लेकर जिस तरह आम बहस रफाल कॉन्ट्रेक्ट पर केंद्रित रही और लोकसभा के शीतकालीन सत्र में यह बहस जारी रही, यह बात तय है कि आने वाले चुनाव में भी रफाल कॉन्ट्रेक्ट का मसला कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान का मुख्य मुद्दा बना रहेगा। हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन के चलते और तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने से उत्साहित नजर आ रही कांग्रेस पार्टी इस बात का भी ऐलान कर चुकी है कि यदि 2019 के चुनाव में केंद्र में उनकी सरकार बनती है तो रफाल मुद्दे की विस्तृत समीक्षा की जाएगी। राजनीतिक दलीलों में उलझा सच कब बेपर्दा होगा, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इस सारे विवाद के चलते भारत की रक्षा और उसके हथियारों को खरीदने की सारी प्रक्रिया पर एक बार फिर से कई बड़े प्रश्नचिह्न लग गए हैं। मोटे तौर पर सरकार और कांग्रेस का रुख इस मुद्दे को लेकर बहुत ज्यादा अलग है।

कांग्रेस पार्टी का कहना है कि वास्तविक समझौते में भारत को फ्रांस से 18 रफाल लड़ाकू विमान तैयार (फ्लाइअवे कंडीशन में) मिलने थे जबकि 128 अतिरिक्त रफाल जहाजों का निर्माण भारत की हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स (एचएएल) को करना था, लेकिन 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस यात्रा के दौरान समझौते को बदलकर केवल 36 रफाल लड़ाकू विमान फ्लाइअवे कंडीशन में खरीदने का फैसला हुआ। इतना ही नहीं, एचएएल को हटाकर तीस हजार करोड़़ रुपए के ऑफसेट का लाभ हाल ही में पंजीकृत अनिल अंबानी की एक कंपनी को दे दिया गया। कांग्रेस का सबसे बड़ा आरोप यह है कि वास्तविक कांट्रेक्ट में एक लड़ाकू विमान की कीमत 526 करोड़ रुपए तय की गई थी लेकिन 2015 में इसको तीन गुना से भी ज्यादा कर 1670 करोड़ रुपए प्रति विमान कर दिया गया।

सरकार का कहना है कि भारतीय वायु सेना को इन 36 विमानों की अत्यंत आवश्यकता थी और राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में यह निर्णय लेना पड़ा। जहां तक कीमत बढऩे की बात है तो कांग्रेस सरकार ने केवल विमानों की कीमत पर निर्णय लिया था, जबकि 2015 में तय की गई कीमत में कई अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित इस विमान की कीमत बदल जाती है। सरकार का यह भी कहना है कि प्रति विमान कीमत का अधिकृत तौर पर ऐलान करने से भारत के दुश्मनों को रफाल लड़ाकू विमान के हथियारों की जानकारी मिल सकती है।

रफाल कॉन्ट्रेक्ट का लगातार विवाद का विषय बने रहने से देश के हर आम नागरिक को चाहे इस तरह के लड़ाकू विमानों की आवश्यकता को लेकर समझ बनी हो या न बनी हो, लेकिन इनकी अत्यधिक कीमत से हैरानी जरूर बढ़ी है। इस सब विवादों और तीव्र आवश्यकता के बावजूद एक भी रफाल लड़ाकू विमान अभी भारत तक नहीं पहुंचा है। लेकिन यह बात केवल इस कॉन्ट्रेक्ट पर लागू नहीं होती। ज्यादातर रक्षा अनुबंध दशकों तक लटके रहते हैं और बाद में इन उपकरणों के स्पेयर पाट्र्स को लेकर अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

स्वीडन में स्थित स्टॉकहोम इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल पीस रिसर्च के अध्ययन में भारत कई वर्षों से लगातार विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है। लेकिन, रफाल जैसे राजनीतिक विवाद और जटिल अधिग्रहण प्रक्रियाओं की वजह से दुनिया के सामने देश की कमजोरी ही प्रदर्शित होती है।

भारत की आजादी के पहले छह दशकों तक सोवियत संघ/रूस भारत के सभी रक्षा उपकरणों का सबसे बड़़ा स्रोत माना जाता था। इसके चलते आज भी भारत के करीब 65 फीसदी रक्षा उपकरण मूलत: सोवियत संघ या रूस के हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद एक स्रोत से हटकर कई बड़ी शक्तियों से रक्षा उपकरणों की खरीदारी के प्रयास शुरू हुए। आज भारत केवल अमरीका से करीब 15 अरब डॉलर के रक्षा उपकरणों की खरीद कर चुका है। इसके बावजूद जब भारत, रूस से एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम (हवाई सुरक्षा प्रणाली) को खरीदने की बात करता है, तो अमरीका पाबंदी थोपने की बात करता है। उसका कहना है कि भारत को यदि इस तरह की प्रणाली की जरूरत है तो अमरीका से खरीद सकता है। इस तरह भारत हथियारों का अग्रणी खरीदार होते हुए भी बड़ी शक्तियों के आगे खुद को कमजोर पाता है।

उदाहरण के तौर पर इस वर्ष जुलाई में भारत-अमरीका टू प्लस टू डायलॉग में ताबड़-तोड़ कम्युनिकेशन कंपेटेबिलिटी एंड सिक्युरिटी एग्रीमेंट (कासा) पर हस्ताक्षर किए गए थे ताकि भारत, अमरीका से कुछ अत्याधुनिक उपकरणों को खरीद सके। लेकिन पिछले दिनों हुई रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण की अमरीका यात्रा में भी इस तरह से प्रिडेटर ड्रोन और दूसरे उपकरणों पर कोई निर्णय नहीं हो सका। अक्सर यह बात उठती है कि क्यों न इतने बड़े पैमाने पर हथियारों की आवश्यकता को कम से कम किसी एक स्तर तक घरेलू स्रोत से पूरा किया जाए। लेकिन, आजादी के बाद घरेलू रक्षा उपकरणों के उत्पादन की ज्यादातर योजनाएं विफल रही हैं। चाहे टैंक हों, हेलीकॉप्टर या लड़ाकू विमान, देश की सेनाएं ही डीआरडीओ के उपकरणों को स्तरीय नहीं मानतीं।

भारत का पड़ोसी देश चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा रक्षा उपकरणों का निर्यातक है। चीन रक्षा उपकरण ज्यादातर विकासशील और कम विकसित देशों को यह कहकर बेचता है कि उसके हथियार पश्चिम के अत्याधुनिक हथियारों की तुलना में 70 फीसदी क्षमता वाले हैं, साथ ही केवल आधी कीमत में हासिल किए जा सकते हैं। अमरीका के अति जटिल प्रावधानों की वजह से जब कई देश उससे हथियार नहीं खरीद पाते तो चीन उनकी जरूरतों को पूरा करता है। उदाहरण के तौर पर चीन आज ड्रोन तकनीक को एशिया के कई देशों-जैसे मिस्र, सीरिया, म्यांमार और पाकिस्तान को खुलेआम बेच रहा है। इससे न केवल चीन के उन देशों के साथ सुरक्षा संबंध सुदृढ़ होते हैं, बल्कि उसका राजनीतिक प्रभाव भी बढ़ता है।

शक्तिशाली देशों की बात करें तो रक्षा अनुसंधान के क्षेत्र में भारत न्यूनतम खर्च करने वाला देश है। कुल सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के हिसाब से एशिया में द. कोरिया सबसे ज्यादा रक्षा अनुसंधान पर निवेश करता है। यही कारण है कि भारत ने हाल ही में अपने पुराने दोस्त रूस के तुंगुस्का और पंतसर रक्षा उपकरणों को नकारकर दक्षिण कोरिया के हानवा के रक्षा उपकरणों को खरीदने का निर्णय लिया है। इस 1.6 अरब डॉलर के कॉन्ट्रेक्ट के हाथ से निकलने से और एस-400 खरीदने को लेकर भारत की लगातार हिचकिचाहट के चलते रूस नाराज है। हाल ही हुई इंडिया-रशिया इंटरगवर्नमेंटल कमीशन ऑन मिलिट्री को-ऑपरेशन में रूस के रक्षा मंत्री सर्गेई शोगू ने औपचारिक तौर पर भारत के इस रूख पर नाराजगी जाहिर की। हाल यह है कि पिछले दो दशकों में जैसे भारत का रुझान अमरीका और उसके साथी देशों की ओर बढ़ा है, रूस भी न केवल चीन बल्कि पाकिस्तान का भी रक्षा सहयोगी बन गया है।

(जेएनयू, नई दिल्ली के सेंटर फॉर इंटरनेशनल पॉलिटिक्स, ऑर्गेनाइजेशन एंड डिसार्ममेंट विभाग में अध्यापन।)

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