उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू के अपने पद पर एक वर्ष पूरे होने पर प्रकाशित पुस्तिका से जुड़े समारोह में उनके और प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्त यह दर्द अपनी जगह सौ टका सही है कि आज अनुशासन को लागू करने वाले को निरंकुश या स्वेच्छाचारी कहा जाने लगा है। सख्ती कहीं भी हो, कोई भी करे, किसी को अच्छी नहीं लगती लेकिन यह तब सहन करने लायक होती है जब सभी पर समान रूप से लागू हो। इसे लागू करने में या समझने में जब भी अपने-पराये का भेद बरता जाता है, तभी वह असहनीय हो जाती है।
आपातकाल का उदाहरण हम सबके सामने है। उस वक्त श्रीमती इंदिरा गांधी ने अनुशासन का इस्तेमाल अपनी सत्ता को बचाने के लिए किया। इसी का नतीजा था कि वृक्ष लगाने, अतिक्रमण हटाने और जनसंख्या को नियंत्रित करने जैसे दूरगामी प्रभावों वाले अभियानों के बावजूद उनकी छवि एक निरंकुश शासक की बना दी गई। नतीजा यह हुआ कि उन्हें सत्ता से तो हाथ धोना ही पड़ा, इतिहास में भी उनके अच्छे कामों को नीचे दबा दिया गया। जबकि हकीकत यह है कि श्रीमती गांधी द्वारा ४३ साल पहले हाथ में लिये ये सारे काम आज भी देश की सबसे बड़ी जरूरत है। सही मायने में तो अगर हमारी सरकारों ने इन पर लगातार अमल किया होता तो देश की आज जैसी हालत नहीं होती।
आज ये ही तो हमारी बड़ी समस्याओं में से है। यह एक उदाहरण काफी है, यह देखने-समझने के लिए कि अनुशासन कब निरंकुश शासन में तब्दील हो जाता है। अनुशासन का मतलब यह कभी नहीं है कि हम वही करें जो एक या कुछ व्यक्तियों को अच्छा लगे। अनुशासन का मतलब मनमर्जी थोपना नहीं बल्कि उसका मतलब है, सबकी सलाह से ऐसे नियम-कायदे बनाना और लागू करना जो सबके और देश के लिए लाभकारी हों। खासतौर पर लोकतंत्र में। जब हम इसके खिलाफ आचरण करते हैं तब जनता को लगता है कि शासन निरंकुश होता जा रहा है। यहां भी शासक के लिए सुधार का एक अवसर होता है। यदि वह संभल जाता है तो लोकप्रिय हो जाता है और नहीं रुकता तो तानाशाह कहलाता है। हमने जिस लोकतांत्रिक शासन पद्धति को अपनाया है, उसकी यही खूबी है कि उसमें मतदाता, तानाशाह को भी सहन नहीं करता। वोटों के मार्फत उसे भी कुर्सी से हटा सकता है।