मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हो रहा हमला संदेशवाहकों का मुंह बंद करने का एक प्रयास है। इन कार्यकर्ताओं की उच्च विश्वसनीयता के चलते ही मीडिया के एक वर्ग के सहारे एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है। आज खबरें अपने आप में अर्धसत्य, जुमले और सुविचारित कुतथ्य का सम्मिश्रण बन चुकी हैं। चूंकि मीडिया पर कुछ हद तक राजकीय और कॉरपोरेट हितों का सीधा व्यावसायिक नियंत्रण है, लिहाजा इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासी समुदाय के हक में उठाई जा रही आवाज सीधे मीडिया के एक वर्ग के व्यावसायिक हितों के साथ टकराव में आ जाती है।
दूसरी ओर ‘सोशल मीडिया’ पर सक्रिय लोग सरोकारों की पैरोकारी करते हैं, भ्रामक आंकड़े पेश करते हैं और कुल मिलाकर दुष्प्रचार करते हैं। इस तरह से एक आम नागरिक विरोधाभासी सूचनाओं के भ्रमजाल में फंस जाता है जहां सत्य नदारद होता है और तथ्य व गल्प में फर्क करना मुश्किल हो जाता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में बढ़ती गैर-बराबरी के चलते हाशिये के समुदाय खासकर दलित और आदिवासी अपने वजूद और नागरिक अधिकारों की मांग को लेकर संघर्ष के लिए एकजुट हो रहे हैं। अपनी संप्रभुता यानी अपनी जमीन और कुदरती संसाधनों, सेवाएं न मिलने, न्याय और प्रतिष्ठा आदि को लेकर जब ये सर्वाधिक वंचित नागरिक सवाल पूछते हैं तो अपना दामन बचाने के लिए राज्य इन्हें राष्ट्रविरोधी करार देता है। इतना ही नहीं, वंचित समाज के पैरोकारों का भी यही हाल किया जाता है। उनका पीछा किया जाता है ताकि भ्रष्टाचार और नाइंसाफी के खिलाफ उठती आवाजों को दबाया जा सके।
अब इस ‘राष्ट्रविरोधी’ को ‘शहरी नक्सल’ के नाम पर एक जुड़वां भाई मिल गया है। यह पूरी तरह से अटपटा, एकतरफा और अबूझ है, बावजूद इसके इनके इस्तेमाल से लोगों का मुंह बंद कराया जा रहा है और उन्हें दंडित किया जा रहा है।
जो सरकारें भ्रष्टाचारी और निरंकुश होती हैं, वे अकसर उद्घाटन, जवाबदेही और नियम-कानून से परहेज करती हैं। जब उनके असंवैधानिक कृत्यों पर सार्वजनिक रूप से सवाल खड़ा होता है तो उनके पास आतंकवाद, राजद्रोह इत्यादि का आरोप लगाने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता ताकि इनके सहारे वे सारे सवालों को दबा सकें। सूचना के अधिकार ने सवाल पूछने को वैध ठहराया है और इस भ्रष्ट व्यवस्था को उससे खतरा है, जैसा कि इस अधिकार को संशोधित करने की कोशिशों और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या से साबित होता है।
विपक्ष को ‘माओवादी या आतंकवादी’ और ‘शहरी नक्सल’ करार देकर सरकारों ने जबरन अपने प्रति सार्वजनिक स्वीकार्यता को पैदा किया है और लोग अब कैमरे पर अटपटे सरकारी फैसलों का समर्थन कर रहे हैं। सरकारी प्रतिशोध ने विवेक को बंधक बना डाला है और चारों ओर चुप्पी का साम्राज्य है। आरटीआइ के प्रयोग ने स्पष्ट रूप से पर्याप्त साबित कर दिया है कि इस देश के संप्रभु नागरिक अपने नाम पर किए जा रहे कृत्यों के प्रति अनभिज्ञ हैं। आरटीआइ के अतिरिक्त ऐसे थोड़े ही औजार हैं जिनसे इन गवाहियों की सत्यता व स्रोत को परखा जा सके।
इन नागरिक अधिकार रक्षकों पर हो रहा हमला 1975 में लगाई गई इमरजेंसी से भी कुछ मामलों में बुरा है। इमरजेंसी में तो सत्ता की सारी प्रेरणा कुर्सी पर बने रहने की थी। आज मामला केवल राजनीतिक सत्ता का नहीं है, बल्कि न्याय और समानता के मूल विचारों को बदलने का अभियान चलाया जा रहा है। नागरिक के लिए जगह तब की तरह आज भी संकुचित की जा रही है और भय का माहौल बनाया जा रहा है, लेकिन आज फर्क यह है कि जिन व्यक्तियों ने संवैधानिक अधिकारों के हक में बोलते-बोलते अपनी जिंदगी बिता दी, उन्हें अपराधी और आतंकवादी ठहराया जा रहा है। उनकी विश्वसनीयता को नष्ट करने की सारी कोशिश की जा रही है।
नागरिक समाज के नुमाइंदों को डरा-धमका के अधिकारों पर किया जा रहा हमला भारत के मूल विचार को ही नष्ट कर देगा। यह वही विचार है जिसे संविधान सभा ने बड़े जतन से गढ़ा था और एक ऐसी वैधानिक संभावना निर्मित की थी, जहां अलग-अलग संस्कृति, विचारधारा और विचार के लोग एक साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में जी सकें, ताकि कहीं ज्यादा न्यायपूर्ण व समतापूर्ण भारत की ओर एक कठिन, लेकिन दृढ़ यात्रा को समर्थ बनाया जा सके।