पुरानी पीढ़ी धर्म, जाति, वंश के सहारे लोकतंत्र की उपलब्धियां नहीं गिना पा रही है। आजादी के बाद विकास की चर्चा के नाम पर आज हर व्यक्ति त्रस्त दिखाई पड़ रहा है। मानो फिर से गुलाम हुआ जा रहा है। वहीं खड़ा है, जहां खड़ा था। आज भी सरकारों पर आश्रित है। जो कुछ विकास दिखाई दे रहा है, यह सारी समृद्धि मूल में तो लोकतंत्र के तीनों पायों तथा उनसे जुड़े वर्ग की है। आम आदमी की नहीं है।
दूसरी ओर सांस्कृतिक धरातल खो गया है। पहली बार लग रहा है पुरानी पीढ़ी ने युवाओं का हाथ छोड़ दिया है। देश की थाती नई पीढ़ी तक नहीं पहुंचा पा रही। शिक्षा की दीवार खड़ी हो गई। आज तो नई पीढ़ी इसमें ही अपना भविष्य ढूंढ़ रही है। उसके सामने अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर कोई राजनेता नहीं दे रहा है। बल्कि हो यह रहा है कि धर्म को राजनीति से जोडक़र उसे भी विषैला बनाया जा रहा है। धर्म सहिष्णु देश का धर्म स्वयं कट्टर होता जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता संविधान के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी। जब देश का प्रधानमंत्री किसी भी एक पार्टी का प्रतिनिधि बनकर कार्य करने लगेगा, शेष भारत का प्रधानमंत्री कौन होगा?
नई पीढ़ी मौन है। धर्म-संकट में पड़ी है। स्वयं धर्म भी संकट में है। वह भी राजनीति का चोगा पहनकर अपना अस्तित्त्व बचा लेने की चिन्ता कर रहा है। क्या ऐसे चिन्तन वाले नेता 21वीं सदी के वैश्वीकरण का चिन्तन कर सकेंगे जहां नई पीढ़ी का भाग्य खड़ा है। क्या वे इस वातावरण में बेरोजगारी के स्वप्नजाल से बाहर आ सकेंगे? वे इस चुनाव को चुनौती मान रहे हैं। उनकी संख्या भी आधी से ज्यादा है। यही परिवर्तन का संकेत भी है। परम्पराएं टूटती दिखाई पड़ रही हैं। क्षितिज पर नया भोर का तारा चमक उठा है। यही मौन टूटकर देश को नई दिशा देगा।
इन चुनावों में पहली बार धर्म और धर्मगुरु फेल होंगे। संत, शंकराचार्य, पीर-पठान पीछे जाते जान पड़ेंगे। नई पीढ़ी इनके साथ अपना भविष्य नहीं जोड़ पा रही। गुण्डों, अपराधियों तथा धन-बल के सहारे लोकतंत्र का झांसा देने वाले भी उठ जाएंगे। इस बार युवा संकल्पित है। वह इस बार किसी लोभ में आने वाला नहीं दिखता। उसे निष्ठावान और भविष्यदृष्टा नेता चाहिए। जो उसकी चिन्ताओं को समझ सके। अत: निर्दलीय भी बहुत हैं और जीतेंगे भी। पत्रिका के ‘चेंजमेकर’ भी उभरे हैं- जन सहयोग से। कुछ परिवर्तन बड़ा होता नजर आ रहा है। शुरुआत राजस्थान से होगी, परिणाम 2019 के लोकसभा चुनावों में सामने आएंगे। विधानसभा चुनावों में मुकाबला सरकारों और जनता के बीच ही दिखाई दे रहा है। कांग्रेस चर्चा में नहीं है। उसके स्टार प्रचारक भी दिखाई नहीं दे रहे। युवा व्यवस्था में परिवर्तन ढूंढ़ रहा है।
अभी पश्चिमी राजस्थान के दौरे पर सामने आया कि वहां के सिंधी-सिपाही (मुसलमान) गाजी फकीर और पीर पगारों के इशारे पर ही मतदान करते हैं। ये फकीर पाकिस्तान के पीरों के प्रतिनिधि हैं। गुजरात में लुनार पीर है। यहां से नियमित चढ़ावा पाकिस्तान जाता है। वहां से फरमान जारी होते हैं। अर्थात् 70 साल बाद भी हम स्वतंत्र चुनाव नहीं करवा पा रहे। और सभी दल इस तथ्य को स्वीकार करके चल रहे हैं। मानो धरती के इस टुकड़े से उनका वास्ता ही नहीं है। राज्य सरकार की योजनाओं की सच्चाई इन लोगों से मिलकर देखी जा सकती है। अयोध्या का राममन्दिर ऐसी ही प्रतिक्रिया का परिणाम है। लोकतंत्र विकास का रास्ता छोडक़र युवा शक्ति को अन्यत्र ले जा रहा है। चुनाव की चाबी युवा के हाथ में है, जो किसी के बहकावे में आने की बजाय स्वतंत्र रूप से फैसला करने की क्षमता रखता है। वह मौन है। भविष्य उसकी मुट्ठी में बंद है। देखना है कि जब उसकी मुट्ठी खुलेगी, तब देश में क्या गुल खिलेंगे। कम से कम धर्म, जाति और ठकुराई (वंशवाद) तो नहीं रहेंगे।