scriptलोकतंत्र का उपहास है नेताओं के सब्जबाग | Democracy is ridiculed, Sabjbag of the politicians | Patrika News

लोकतंत्र का उपहास है नेताओं के सब्जबाग

locationजयपुरPublished: Nov 15, 2018 04:38:03 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

संविधान के अनुच्छेद 32 या 226 के तहत जनहित याचिका प्रस्तुत की जा सकती है कि विधायिका को निर्देश दिया जाए ताकि वह कानून बना सत्ताधारी दल को चुनाव घोषणा पत्र में किए वादे निश्चित समय-सीमा में लागू करने के लिए पाबंद करे।

election manifesto

election manifesto

शिवकुमार शर्मा
पूर्व न्यायाधीश, राजस्थान हाईकोर्ट

कई वर्ष पहले एक फिल्मी गीत बहुत मशहूर हुआ था, शायद आपको भी याद रहा हो- ‘वादा तेरा वादा, वादे पे तेरे मारा गया, बंदा ये सीधा साधा…।’ यह गीत चुनावी माहौल में बार-बार जेहन में गूंजने लगता है। मंचों से लोक-लुभावन वादों की बारिश करके नेता खूब तालियां पिटवाते हैं। भोली-भाली जनता, शब्दों के जादूगरों की बातों में आकर उनकी बलाइयां लेने लगती है। मंचों से उछाले गए जुमलों से आकाश आच्छादित हो जाता है।

लोगों को लगता है कि उनके संकट मोचक अगर कोई हैं तो बस यही भाषण-वीर हैं और सभी समवेत स्वरों में गाने लगते हैं द्ग ‘दुख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे।’ चुनावी घोषणा पत्रों में जनहित की इन्द्रधनुषी घोषणाएं की जाती हैं। इन घोषणा पत्रों के प्रकाशन से पूर्व समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधियों को बुलाकर उनकी समस्याओं को सुना जाता है, उनके विचार जाने जाते हैं। फिर एक दस्तावेज तैयार होता है, जिसमें लंबी-लंबी डींगें हांकी जाती हैं। डींगें इसलिए क्योंकि घोषणा पत्रों में दलों द्वारा जो दिवास्वप्न दिखाए जाते हैं, वे कभी पूरे नहीं होते।

मुझे एक दृश्य याद आ रहा है द्ग ‘बाबा मैं बहुत परेशान हूं, मेरे दुखों को दूर करो बाबा।’बाबा मंच पर गम्भीर मुद्रा में हाथ ऊपर उठा कर कहते हैं द्ग ‘ये समोसे क्यों सामने आ रहे हैं… क्या तुमने समोसे खाए थे?’ खाए थे बाबा।’बाबा द्ग ‘लाल चटनी से खाए थे या हरी से?”हरी से बाबा।’बाबा बोले, ‘ओह! कृपा वहीं अटकी हुई है, अब लाल चटनी से जाकर समोसे खा। कल्याण होगा।’इस देश की गरीब जनता के साथ भी इसी तरह का खिलवाड़ होता रहा है। कभी युवाओं को रोजगार के अवसरों के सब्जबाग दिखाए जाते हैं, तो कभी लोगों के बैंक खातों में लाखों रुपए जमा करने के वादे किए जाते हैं। बहुधा होता यही है कि ये वादे पूरे ही नहीं होते हैं। जब इन घोषणाओं को लेकर सवाल खड़े किए जाते हैं तो इन्हें चुनावी जुमला कह दिया जाता है।

सरकार किसी भी दल की बने घोषणापत्र में किए गए वादे, कोरे वादे ही रह जाते हैं। कांग्रेस सरकार ने 2008 में सत्ता में आने से पहले चुनावी घोषणा पत्र में पेट्रोल व डीजल की दरों से वैट घटा कर कीमत कम करने की घोषणा की थी, किन्तु इस घोषणा को अमलीजामा नहीं पहनाया गया। ऐसे ही भाजपा सरकार ने 2013 में सत्ता में आने से पूर्व चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था। विधिवेत्ता इस पर विचार कर सकते हैं कि क्या न्यायालय में चुनाव घोषणा पत्र के वादों को लागू कराया जा सकता है?

क्या जनता के साथ इस तरह का धोखा लोकतंत्र का उपहास नहीं है? क्या वादा खिलाफी करने वाले दलों की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए? संसद या विधानसभाओं में इस प्रकार का कानून बनाया जा सकता है कि यदि सत्ताधारी दल निश्चित समय सीमा में चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादों को लागू नहीं करता है तो चुनाव आयोग उसकी मान्यता रद्द कर सकता है। किन्तु मुझे नहीं लगता कि कोई भी दल इस प्रकार के कानून को बनाने की पहल करेगा। इसके लिये हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका प्रस्तुत करनी होगी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 या 226 के तहत जनहित याचिका प्रस्तुत की जा सकती है कि विधायिका को निर्देश दिया जाए ताकि वह कानून बना सत्ताधारी दल को चुनाव घोषणा पत्र में किए वादे निश्चित समय-सीमा में लागू करने के लिए पाबंद करे। यदि ऐसा नहीं होता है तो चुनाव आयोग को अधिकार होगा कि सत्ताधारी दल की मान्यता निरस्त कर दे।

ऐसा कानून बनने का यह परिणाम अवश्य होगा कि चुनावी घोषणपत्र में वही वादे किए जाएंगे जिन्हें लागू किया जाना राजनीतिक दल के लिए संभव होगा। इस परिस्थिति में जनता को ठगना और धोखा देना आसान नहीं होगा।

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो