हमारी ऋषि परंपरा ने कला को ईश्वर की आराधना कहा। इंसानी उसूलों का उद्घोष मानकर इन कलाओं का बहुरंगी संसार रचने वाले चितेरों ने यह साबित किया कि स्वर, शब्द, रंग, लय, गति, अभिनय और मुद्राओं में इस जीवन और जगत के हर देखे-अनदेखे को सिरजने की आकुलता को आकार दिया जा सकता है। और इस तरह एक प्रति संसार रचा जा सकता है। कलाओं की यह दुनिया मानवीयता के दरीचे खोलती है। एक ऐसे मानस की रचना करती है, जो अमन और आपासदारी का जगतव्यापी संदेश लिए सरहदों के फासले पूरता है।
दिलचस्प यह कि दायरों से दूर होकर देखिए, तो जनजातीय लोक और नगर कलाओं तक यह अंतर्धारा बहुत साफ बहती नजर आती है। इनकी परस्परता एक ऐसा सांस्कृतिक परिवेश रचती है, जहां लालित्य और सौंदर्यबोध एक परंपरा में अपना रूप गढ़ते हैं। कहीं कोई गीत, कोई छंद सुर-ताल से हमजोली कर रहा है। कहीं देह की भाषा उसके मर्म को नाटक में अभिव्यक्त कर रही है। कहीं कोई कथा उपन्यास और नाटक रंगमंच पर अभिनय की छवियों में साकार हो रहे हैं। कहीं रंग-रेखाओं और मूर्ति-शिल्पों में कोई भावमय लगन चित्त में उठे किसी स्मृति बिम्ब को पा लेने की कसक से भरी है। आपाधापी भरी बोझिल और बेस्वाद होती जा रही दुनिया आखिरकार थक-हार कर कलाओं की छांव में ही सुस्ताना चाहती है। यही वजह है कि सांस्कृतिक बहुरंगों से आत्मीय नातेदारी का तार बंधा है।
(लेखक कला, साहित्य समीक्षक व टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र के निदेशक हैं)