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वाणी का अवमूल्यन

भारतीय राजनेताओं को ये क्या होता जा रहा है? वे चाहे
किसी भी दल और उम्र के हों, सत्ता पक्ष के हों

Sep 30, 2015 / 11:44 pm

मुकेश शर्मा

Narendra Modi

Narendra Modi

भारतीय राजनेताओं को ये क्या होता जा रहा है? वे चाहे किसी भी दल और उम्र के हों, सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, कायदे से कायदे की बात करते नजर नहीं आते। नरेन्द्र मोदी विदेशों में जाकर प्रधानमंत्री नहीं बल्कि एक राजनीतिक दल के नेता के रूप में व्यवहार करते हैं तो राहुल गांधी के भाष्ाणों को सुनकर लगता ही नहीं कि वे 130 साल पुरानी उस राजनीतिक जमात के उपाध्यक्ष हैं जिसने देश को आजादी दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई।


जब इन दो बड़ी पार्टियों के बड़े नेताओं का, जिन पर ये पार्टियां टिकी हुई हैं और जो देश की पहचान तथा उम्मीद हैं, का यह हाल है तब अन्य दलों और नेताओं से क्या उम्मीद करें? फिर चाहे वह दिग्विजय सिंह हों या अमित शाह, लालू यादव हों अथवा मुलायम सिंह।


सबका व्यवहार “एक ही थैली के चट्टे-बट्टे” जैसा है। ताजा उदाहरण बिहार का चुनावी रण है जिसमें अपनी जीभ को धार देते हुए अमित शाह ने लालू को चारा चोर तो बताया ही सारे बिहार को उनसे जोड़ दिया। पर्दे के पीछे से उनकी मदद कर रहे पप्पू यादव ने हल्ला बोला बिहार के मास्टरों पर।


उन्होंने कह दिया कि वे तो कुत्तों को पढ़ाने लायक भी नहीं हैं। यहां लालू के भाष्ाणों का तो जिक्र ही बेमानी है जिन्हें लोग मजाक में उड़ा देते हैं। आखिर हम कहां जाना चाहते हैं। देश जब आजाद हुआ, जब देश ने लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था को स्वीकारा तब के नेताओं ने सोचा भी नहीं होगा कि उनके वंशज कहां तक और कितना गिरेंगे।


ज्यादा पुरानी बात नहीं, करीब डेढ़ दशक पहले तक चुनाव नीति-सिद्धांत, कार्यक्रम और मुद्दों पर लड़े जाते थे। बोफोर्स का मुद्दा भले आज तक सही-गलत साबित नहीं हो पाया लेकिन संभवत: वह आखिरी चुनाव था जिस पर मुद्दे हावी थे। बाद में मण्डल-कमण्डल से लेकर आज तक कभी कोई चुनाव नीति और नीयत पर नहीं हुआ। आज भी हम राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह जैसे नेताओं को याद कर सकते हैं।


तब राजनेता बरसते भी थे तो राजनीतिक दल पर। उसके नेतृत्व की आलोचना करते थे लेकिन नाम विरले ही नेता का आता था। इसी से राजनीति और देश की गरिमा थी। इसी गरिमा को हम सफल लोकतंत्र कहकर अभी तक भुना रहे हैं।

यदि हम चाहते हैं कि यह गरिमा बनी रहे तो राजनेताओं को सुधरना होगा। और यदि वे सुधरने को तैयार नहीं हो तो यह दायित्व मतदाता का है कि वह उन्हें घर बिठाकर सुधार दे। अन्यथा उनका तो कुछ दांव पर नहीं है देश का गौरव लुट जाएगा।

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